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पर से कुछ भी संबंध नहीं और अज्ञानरूप भी। चारित्र गुण की तो गति अर्थात् चारित्र गुण का परिणमन संक्लेश रूप भी होता है व विशुद्ध रूप भी होता है।
शक्ति : ज्ञान की शक्ति स्व-परप्रकाशक है तथा चरित्र की शक्ति स्थिरता व अस्थिरता रूप परिणमन करना है।
जाति : ज्ञान की दो जातियाँ हैं - १. सम्यक् २. मिथ्या । सम्यग्दर्शन होते ही मिथ्याज्ञान जाति का नाश हो जाता है। पर, ज्ञान जाति का नाश नहीं होता अर्थात् ज्ञान जाति पलट कर कभी जड़ नहीं होती। चारित्र गुण के परिणमन में तीव्ररूप व मन्दरूप दो जातियाँ हैं । यहाँ तीव्रता व मन्दता दोषों को समझना, शुद्धता की अपेक्षा नहीं क्योंकि पाँचवे गणस्थान तक तीव्रता का अर्थ अकेली तीव्रता ही मत समझना, मंदता भी वहाँ होती है। हाँ, पाँचवें गुणस्थान के ऊपर तीव्रता नहीं होती।
सत्ता : ज्ञान व चारित्र की सत्ता आत्मद्रव्य प्रमाण है। एक ही द्रव्य के ये दोनों गुण हैं, इसलिए दोनों की सत्ता द्रव्य प्रमाण हैं, परन्तु गुण की अपेक्षा दोनों की सत्ता भिन्न-भिन्न है। दोनों के प्रदेश भिन्न नहीं हैं; पर भाव अपेक्षा से भिन्नता है।
इसप्रकार ज्ञान व चारित्र के गुणभेद जानना।
सारांश यह है कि - ज्ञानगुण की गति - ज्ञान व अज्ञानरूप, शक्ति - स्व-परप्रकाशक, जाति - सम्यक्-मिथ्या, सत्ता - द्रव्य प्रमाण ।
इसीप्रकार चारित्रगुण की गति - संक्लेश व विशुद्धरूप, जाति - तीव्र व मन्दरूप, शक्ति -स्थिरता व अस्थिरता रूप, सत्ता - द्रव्य प्रमाण
द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक निमित्त-उपादान तो फिर त्रिकाल भिन्न रहनेवाले पदार्थ एक-दूसरे की सहायता करें - यह बात ही कहाँ रही ? एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ योगदान या सहयोग करें - ऐसी तो वस्तु के स्वरूप में योग्यता ही नहीं है। वस्तु स्वाधीनता से परिणमन करती है, यही वस्तुस्वरूप की व्यवस्था है। जिसने इस वस्तुस्वरूप का निर्णय कर लिया, उसी की मति व्यवस्थित है।
प्रवचनसार में आचार्य कहते हैं कि - सभी तीर्थंकर भगवन्तों के अनुभूत और प्रदर्शित मोक्षमार्ग के दृढ़ निर्णय से एवं स्वयं तद्प परिणमन करने से मेरी मति व्यवस्थित हो गई है।
यहाँ एक ही द्रव्य के आश्रित उपादान-निमित्त समझाने के लिए एक ही आत्मद्रव्य के ज्ञान व चारित्र दो गुण दृष्टान्त रूप में लिये गये हैं। इसीतरह और भी समझ लेना चाहिए।'
प्रश्न ६४ : उपर्युक्त विवेचन में ज्ञान व चारित्र को असहाय अर्थात् स्व-सहाय कहा, किन्तु सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यक्चारित्र तो कभी होता ही नहीं है - ऐसी स्थिति में चारित्रगुण ज्ञानगुण के आधीन हुआ या नहीं?
उत्तर : सम्यग्ज्ञान के बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता - यह बात शत-प्रतिशत सही है; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं होता कि चारित्र का परिणमन ज्ञान के आधीन हो गया। जिसप्रकार चतुर्दशी के बाद पूर्णिमा आती है। इससे पूर्णिमा चतुर्दशी के आधीन नहीं हो जाती। उसीप्रकार सम्यक्चारित्र की पर्याय सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के बाद आती है। इससे वह सम्यक्चारित्र की पर्याय सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के आधीन नहीं हो जाती। दोनों गुणों के परिणमन बिल्कुल स्वतंत्र हैं। अरे ! किसी जीव को सम्यग्दर्शन-ज्ञान के पश्चात् तुरंत ही चारित्र की पर्याय विकसित हो जाती है और किसी-किसी को सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के बाद सम्यक्चारित्र का परिणमन स्वाधीन है।
ज्ञान व चारित्र की स्वतंत्र सत्ता सिद्ध होने से इन्हीं की भाँति अन्य सर्वगुण भी असहाय अर्थात् स्वसहाय सिद्ध हो जाते हैं। ____ इस सम्पूर्ण कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि - जब एक-द्रव्य में त्रिकाल एकसाथ रहनेवाली गुण भी एक-दूसरे की सहायता रहित स्वाधीन हैं