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पर से कुछ भी संबंध नहीं न्यायदीपिका में आया है कि - उपादान की तत्समय की योग्यता ही कार्य का समर्थकारण है।
प्रश्न ५२ : जब उपादान अपना कार्य स्वयं कर लेता है तो निमित्त के अनुसार कार्य होता है - ऐसा क्यों कहा जाता है ?
उत्तर : निमित्तों के अनुसार कार्य नहीं होता; अतः कार्य सम्पन्न होने में तो निमित्तों की आवश्यकता बिल्कुल नहीं है, किन्तु कार्य के अनुकूल जो पर द्रव्य उपस्थित होते हैं; उन्हें निमित्त कहा जाता है।
जब किसी प्रियजन का अनिष्ट होते देख रागी को राग और वैरागी को वैराग्य उत्पन्न होता है; तब उस अनिष्ट घटना को रागी के राग और वैरागी के वैराग्य का निमित्त कहा जाता है। यदि निमित्त के अनुसार ही कार्य प्रवर्तित हो तो उसे देखकर प्रत्येक को राग या वैराग्य ही उत्पन्न होना चाहिए।
आचार्य कल्प पण्डित प्रवर टोडरमलजी कहते हैं - "परद्रव्य कोई जबरन ( बलात् ) भावों को बिगाड़ता नहीं है। जब जीव अपने भाव बिगाड़े, तब वह भीबाह्य निमित्त है तथा इसके निमित्त बिना भी भाव बिगड़ते हैं, इसलिए नियमरूप से निमित्त भी नहीं है - इसप्रकार परद्रव्य का दोष देखना तो मात्र मिथ्याभाव है।"
न तो निमित्त उपादान में कुछ बलात करता है और न ही उपादान किन्हीं निमित्तों का बलात् लाता या मिलाता है - दोनों का सहज संबंध होता है।
इसप्रकार उपादान और निमित्त का यथार्थरूप समझने से मिथ्याभ्रान्ति दूर हो जाती है और पराश्रय के कारण उत्पन्न दीनता-हीनता का भाव समाप्त हो जाता है। द्रव्यस्वभाव की स्वतंत्रता का भान होने से स्वालम्बन का भाव जाग्रत होता है। परपदार्थों के सहयोग की अभिलाषा से होनेवाली व्यग्रता का अभाव होकर शान्ति प्राप्त होती है।
कार्य-कारण सम्बन्ध : एक विश्लेषण
कर्मोदय के निमित्त से आत्मा में होनेवाले औदयिक भावों को निमित्त की अपेक्षा नैमित्तिक कहते हैं एवं कर्मोदय को निमित्त कहते हैं। इन दोनों के संबंध को ही निमित्त-नैमित्तिक कहते हैं।
कतिपय उदाहरण इसप्रकार हैंजितने अंश में ज्ञानावरण कर्म का आवरण होगा, उतने ही अंश में जीव का ज्ञान नियम से ढका हुआ होगा। यहाँ ज्ञानावरण कर्म का आवरण निमित्त है और तदनुकूल ज्ञान का हीनाधिक होना नैमित्तिक है। जितने अंश में मोहनीय कर्म का उदय होगा, उतने ही अशं में
आत्मा का चारित्रगुण अपनी वर्तमान योग्यता से नियम से विकारी होगा। यहाँ मोहनीय कर्म निमित्त है और तद्प चारित्रगुण की विकारी अवस्था नैमित्तिक है। जिस गतिनामकर्म का उदय होगा, उसके अनुकूल आत्मा अपनी योग्यता से उस गतिरूप अवस्था धारण करता ही है। यहाँ गतिनामकर्म निमित्त है और तद्रूप आत्मा का उस गतिरूप होना नैमित्तिक है। जितने अंश में रागादिक भाव आत्मा में होंगे, उतने अंश में कार्माणवर्गणा अपनी तत्समय की योग्यता से कर्मरूप अवस्था धारण करेगी। आत्मा के रागादिक भाव निमित्त कारण है और कार्माणवर्गणा को कर्मरूप अवस्था होना नैमित्तिक कार्य है। जितने अंश में आत्मा के प्रदेश हलन-चलन करेंगे, उतने ही अंश में शरीर के परमाणु हलन-चलन करेंगे। आत्मा के प्रदेश का हलन-चलन करना निमित्त कारण और तद्रूप शरीर के परमाणुओं का क्रियाशील होना नैमित्तिक कार्य है।
प्रश्न ५३ : सनिमित्तो को मिलाना एवं बुरे निमित्तों को हटाना तो पड़ेगा न ? यदि सनिमित्तों को मिलायेंगे नहीं तो वे मिलेंगे कैसे ?