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पर से कुछ भी संबंध नहीं उत्तर : कार्य कारण के अनुसार ही निष्पन्न होता है। कहा भी है - 'कारणानुविधायित्वादेवकार्याणि' तथा 'कारणानुविधायीनि कार्याणि'२
जैसे - जौ से जौ ही उत्पन्न होते हैं। स्वर्ण से स्वर्णाभूषण ही बनते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र जीव से ही उत्पन्न होते हैं, देवशास्त्र-गुरु से नहीं। देव-शास्त्र-गुरु तो निमित्त मात्र हैं, वे सम्यग्दर्शनरूप कार्य के कारण नहीं हैं।
प्रश्न ६: कारण किसे कहते हैं ?
उत्तर : कार्य की उत्पाद सामग्री को कारण कहते हैं। कार्य के पूर्व जिसका सद्भाव नियत हो और जो किसी विशिष्अ कार्य के अतिरिक्त अन्य कार्य को उत्पन्न न करे। वस्तुत: यही कार्य की उत्पादक सामग्री है, जिसे कारण कहते ।
कारण के मूलत: दो भेद हैं कारण उपादान कारण २. निमित्त कारण ।
इन दोनों, कारणों के अनेक भेद-प्रभेद हैं। उन सबका विस्तृत विवेचन आगे क्रमशः किया जा रहा है।
निमित्त प्रश्न : निमित्तों में कर्तृत्व के भ्रम का कारण क्या है और उसका निवारण कैसे हो? । त्रिकाली उपादान क्षणिक उपादान..१. प्रेरक ३.अंतरंग ५.सदुभावरूप ७.वूलाधान
उत्तर : कार्य के अनुकूल सयोगी पदासीन काबरमत अभावमय आन्तवषय उपस्थिति होम से कार्य के अनुकूल होने से एवं उन्हें आगम में भी कारण संज्ञा अनन्तपूर्वक्षणवर्ती _तत्समये की योग्यता, पर्याय द्यात व्यसाधायया जन भ्रमित हो जाते हैं; परन्तु वे संयोगी पदार्थ कार्य के अनुरूप या कार्यरूप स्वयं परिणमित न होने से कर्ता नहीं हो सकते । कहा भी है - नोट परिणमति से:किर्तीमातित भ्रमिसेनलीहोभी बाहिए इन्हीं के स्वरूप प्रकारान्तर से हैं
१. अन्वय कारण २. उत्पादन कारण ३. संहारकारण ४. साधकतम कारण । इनका स्वरूप परिशिष्ट में दिया है।
निमित्तोपादान कारण : स्वरूप एवं भेद-प्रभेद प्रश्न ८ : निमित्त कारण किसे कहते हैं ?
उत्तर : जो पदार्थ स्वयं तो कार्यरूप परिणत न हों, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने से जिन पर कारणपने का आरोप आता है, उन्हें निमित्त कारण कहते हैं।
प्रश्न ९ : निमित्त-उपादान में परस्पर क्या अन्तर है ?
उत्तर : जिसके बिना कार्य हो नहीं और जो कार्य को करे नहीं, वह निमित्त है तथा जो स्वयं समर्पित होकर कार्यरूप परिणत हो जाय, वह उपादान है। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसके साथ कार्य की बाह्य व्याप्ति हो वह निमित्त तथा जिसके साथ कार्य की अन्तरंग व्याप्ति हो वह उपादान है।