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________________ पंच परमेष्ठी चारित्र, जय त्रिलोक शान्तिमूर्ति, जय अविनाशी, जय निरंजन, जय निराकार, जय निर्लोभ, जय अतुल महिमा भण्डार, जय अनन्त दर्शन, जय अनन्त ज्ञान, जय अनन्त सुख से मण्डित, जय अनन्तवीर्य धारक, जय संसार शिरोमणि तथा हे गणधर देवों और सौ इन्द्रों से पूज्य ! तुम जयवन्त प्रवर्तो, तुम्हारी जय हो, तुम्हारी बहुत वृद्धि हो।" "जय परमेश्वर, जय सिद्ध, जय आनन्द पुंज, जय आनन्द मूर्ति, जय कल्याण पुंज, जय संसार-समुद्र के पारगामी, जय भवजलधिजहाज, जय मुक्ति-कामिनी कन्त, जय केवल ज्ञान-केवल लोचन, जय परम पुरुष परमात्मा, जय अविनाशी, जय टंकोत्कीर्ण, जय विश्वरूप, जय विश्वत्यागी, जय विश्वज्ञायक, जय ज्ञान से लोकालोक प्रमाण एवं तीन काल प्रमाण, जय अनन्त-गुण भण्डार, जय अनन्त गुण-खान, जय चौंसठ ऋद्धि के ईश्वर, जय सुख-सरोवर-रमण, जय सम्पूर्ण सुख से तृप्त एवं सर्व दुःखों से रहित, जय अज्ञानतिमिर के विध्वंसक, जय मिथ्यावज्र को फोड़ने को एवं चकचूर करने को परम वज्र, जय तुंगशीर्ष - तुम्हारी जय हो।" “आप ज्ञानानन्द बरसाने, अमोघ ताप को दूर करने एवं भव्यजीवोंरूपी खेती का पोषण करनेवाले; ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य के अंगोपांग सहित तीन लोक के अग्रभाग में विराजमान हैं, परन्तु तीन लोक को एक परमाणु मात्र भी खेद उत्पन्न नहीं करते हैं।" हे भगवन् ! मैं आपके उपकार को नहीं भूला हूँ, इसलिए दयाबुद्धि हेतु मैं आपके पास थोड़ी देर बैठता हूँ, किन्तु मैं भगवान के अनन्तवीर्य का भार मस्तक के ऊपर कैसे धारण करूँगा? इसका भार मेरे बूते (मेरी अल्पशक्ति से) कैसे सहा जायेगा?" "हे भगवन् ! आप अनन्तबली और मैं असंख्यातबली; मेरे ऊपर अनन्तबली का भार कैसे ठहरे ? इसलिए मैं आगे जाकर आपकी सेवा अरहन्त का स्वरूप करता है। आप तो परम दयालु हैं, अत: मुझे खेद उत्पन्न नहीं करते हैं, अब यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है। भगवान तो वृष्टि करने हेतु मेघ सदृश्य हैं।" "अहो भगवन् ! आकाश में यह सूर्य विराज रहा है; वह क्या है, मानो आपकी ध्यानरूपी अग्नि की कणिका ही है अथवा आपके नख की लालिमा का आकाशरूपी दर्पण में एक प्रतिबिम्ब ही है।" "अहो भगवन् ! आपके मस्तक के ऊपर तीन छत्र शोभायमान हैं, इसलिए मानो छत्र के बहाने तीन लोक ही सेवन करने को आया है। हे भगवन् ! आपके ऊपर चौंसठ चमर ढुरते हैं, अत: मानो चँवरों के बहाने इन्द्रों का समूह ही नमस्कार करता है । हे भगवन् ! यह आपका सिंहासन ऐसा शोभायमान होता है, मानो यह सिंहासन नहीं है; अपितु यह तीन लोक का समुदाय ही एकत्र होकर आपके चरण-कमलों की सेवा करने आया हो।” “आपकी सेवा सन्त कैसे करते हैं ? हे भगवन् ! आप जो अनन्त चतुष्टय को प्राप्त हुए हैं, सो सिद्ध अवस्था में मेरे मस्तक के ऊपर या कन्धे के ऊपर विराजमान होंगे। अहो भगवन् ! यह जो आपके ऊपर अशोकवृक्ष सुशोभित होता है, वह त्रिलोक के जीवों को शोक रहित करता है।" हे जिनेन्द्र देव ! आपके चरण-कमलों की लालिमा किसप्रकार है? मानो केवलज्ञानादि का उदय करवाने हेतु सूर्य का ही वहाँ उदय हुआ है अथवा भव्यजीवों के कर्म-काष्ठ को जलाने के लिए आपकी ध्यानाग्नि की चिनगारी प्राप्त हुई है, जो अग्निरूप हुई है, अन्य कुछ नहीं।" “अथवा आप कल्याण वृक्ष की कोंपल ही हैं अथवा चिन्तामणिरत्न, कल्पवृक्ष, चित्रावेली, कामधेनु, रसकूप का पारस तथा इन्द्र, नरेन्द्र, धरणेन्द्र, नारायण, बलभद्र, तीर्थंकर, चार निकाय के देव, राजाओं
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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