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________________ अरहन्त का स्वरूप पंच परमेष्ठी है, एक अधर्मद्रव्य है। काल के कालाणुद्रव्य असंख्यात एक-एक प्रदेशमात्र हैं। जीवद्रव्य अनन्त हैं। एक जीवद्रव्य तीन लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशों के समूहवाला है और उनसे भी अनन्तान्तगुने प्रदेश के आकार को धारण किए हुए पुद्गलद्रव्य अनन्त हैं। इनमें चार द्रव्य तो अनादि से स्थिर, ध्रुवरूप स्थित हैं। जीव और पुद्गलद्रव्य गमनागमन भी करते हैं। यह तीनों लोक, आकाशद्रव्य के मध्य में स्थित हैं। इनका कर्ता और कोई नहीं है, अपितु ये छहों द्रव्य अनादिकाल से अनन्तकाल पर्यन्त स्वयंसिद्ध स्थित बने हुए हैं। जीव अपने रागादि भावों से पुद्गलपिण्डरूप प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग - ऐसे चार प्रकार के बन्ध से बँधता है। उसके उदय में जीव की दशा विभावभावरूप होती है। ____ जीव निज स्वभाव से ज्ञानानन्दरूप अनन्तसुख का पुञ्ज है, तो भी कर्म के उदय से महा-आकुलतारूप परिणमता है। उसके दुःख की वार्ता कहने की सामर्थ्य नहीं है। उस दुःख की निवृत्ति के अर्थ सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र हैं, उनके उपदेश को कहनेवाले आप अरहन्त -देव ही हैं। आप ही संसार-समुद्र में डूबते हुए प्राणी को हस्तावलम्ब हैं। आपका उपदेश न होता तो भी सर्व प्राणी संसार में ही डूबे रहते तो बड़ा अनर्थ हो जाता, परन्तु आप धन्य ! आपका उपदेश धन्य ! आपका जिनशासन धन्य ! आपका बताया हुआ मोक्षमार्ग धन्य ! आपका अनुसरण करनेवाले मुनि आदि सत्पुरुष धन्य ! उनकी महिमा करने में हम समर्थ नहीं हैं। ___ कहाँ तो नरक-निगोद आदि के दुःख और ज्ञान-वीर्य की न्यूनता तथा कहाँ मोक्ष का सुख और ज्ञान-वीर्य की अधिकता ? हे भगवन् ! आपके प्रसाद से यह जीव चतुर्गति के दु:खों से छूटकर मोक्षसुख को पाता है। ऐसे परम उपकारी आप ही हो, इसलिए हम आपको नमस्कार करते हैं। अब अरहन्त भगवान की स्तुति करने का विधान कहते हैं - जैसे राजादि बड़े महन्त पुरुषों से कोई दीन पुरुष अपने दुःख की निवृत्ति हेतु जाकर, सामने खड़ा होकर, मुख के आगे भेंट रखकर इसप्रकार का वचनालाप करे - पहले तो राजा की बढ़ाई करे, पश्चात् अपने दुःख की निवृत्ति की वांछा करता हुआ इसप्रकार कहे - "यह मेरा दु:ख निवृत्त कीजिए", पश्चात् वे कृपा कर इसके दुःख की निवृत्ति करें; उसीप्रकार यह संसारी परम दुःखी आत्मा दीन, मोह कर्म से पीड़ित श्रीजी के निकट जाकर खड़ा हो, भेंट आगे रख, पहले तो श्रीजी की महिमा का सुन्दर वर्णन करे, श्रीजी का गुणानुवाद करे; पश्चात् स्वयं को अनादिकाल से जो मोह कर्म ने घोरानघोर नरक-निगोदादि के दुःख दिए, उनका निर्णय करे। पश्चात् उनकी निवृत्ति के लिए यह प्रार्थना करे - "हे भगवन् ! ये अष्ट कर्म मेरे साथ लगे हैं, मुझे महा तीव्र वेदना उत्पन्न करते हैं, मेरे स्वभाव का घात कर उसे मैला किया है, उसके दुःख की बात मैं कहाँ तक कहूँ ? अत: अब इन दुष्टों को मार गिराइये और मुझे निर्भय स्थान मोक्ष दीजिए, जिससे मैं चिरकाल पर्यन्त सुखी हो जाऊँ।" इसके पश्चात् भगवान के प्रताप से यह जीव सहज ही सुखी होता है और मोह कर्म सहज ही गल जाता है। अब अरहन्त भगवान की स्तुति का विशेष वर्णन करते हैं - "जय जय, तुम्हारी जय, जय भगवान, जय प्रभु, जय नाथ, जय करुणानिधि, जय त्रिलोकीनाथ, जय संसार-समुद्र तारक, जय भोगों से पराङ्गमुख, जय वीतराग, जय देवाधिदेव, जय सच्चे देव, जय सत्यवादी, जय अनुपम, जय बाधा रहित, जय सर्व तत्त्वप्रकाशक, जय केवलज्ञान
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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