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________________ पंच परमेष्ठी के समूह और समस्त उत्कृष्ट पदार्थ तथा मोक्ष देने का एक पात्ररूप परम उत्कृष्ट निधि ही हैं। भावार्थ - " आपके चरणों की आराधना से सर्वोत्कृष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है, इसलिए आपके चरण ही सर्वोकृष्ट निधि हैं। आपके नेत्रों में ऐसा आनन्द बसता है, जिसके एक अंश मात्र आनन्द के टुकड़े से चार जाति के देवताओं का शरीर उत्पन्न हुआ है।" " आपके शरीर की महिमा कहने में त्रिलोक में कौन समर्थ है ? परन्तु लाड़ला पुत्र होवे तो माता-पिता को जैसा चाहे बोले, परन्तु माता-पिता उसको बालक जानकर उससे प्रीति ही करें, उसकी इच्छानुसार मिष्ट वस्तु मँगाकर खाने को दें। अतः हे भगवन् ! आप मेरे प्रकट माता-पिता समान हो, मैं आपका लघु पुत्र हूँ। मुझे लघु बालक जानकर मेरे ऊपर क्षमा करो। " "हे भगवन् ! हे प्रभु! आपके समान मेरा अन्य कोई स्वामी नहीं । हे भगवन् ! मोक्ष लक्ष्मी के कन्त आप ही हो, आपके चरणारविन्दों का सेवन कर अनेक जीव पार हुए हैं, अभी पार हो रहे हैं, आगे भी पार होंगे। हे भगवन् ! दुःख दूर करने को आप ही समर्थ हैं।" "हे भगवन्! हे प्रभु जिनेन्द्र देव !! आपकी महिमा अगम्य है। हे भगवन्! आप समवशरण लक्ष्मी से विरक्त हो, कामबाण के विध्वंसक हो, मोहमल्ल को पछाड़ने के लिए आप ही अद्वितीय मल्ल हो तथा जो जरादि को एवं त्रिलोक के जीवों को काल (वृद्धावस्थारूपी काल ) निगलता हुआ, गिराता हुआ चला आ रहा है; इसे पछाड़ने में अन्य कोई समर्थ नहीं है। " समस्त लोक के जीव काल की दाढ़ में बसते हैं। निर्भय हुआ यह काल उनको अपनी दाढ़ से चबाता हुआ निगलता रहता है, आजतक १७ अरहन्त का स्वरूप भी तृप्त नहीं हुआ है। उसकी दुष्टता और प्रबलता से कौन अधिक समर्थ है ? उसे आपने क्षणमात्र में, क्रीड़ामात्र में ही जीत लिया है। हे भगवन्! आपको हमारा नमस्कार हो।" “हे भगवन् ! आपके चरण-कमलों के सम्मुख आने पर मेरे पैर पवित्र हुए, आपके रूप का अवलोकन करते हुए नेत्र पवित्र हुए, आपके गुणों की महिमा और स्तुति करते हुए जिह्वा पवित्र हुई, आपके गुणों की पंक्ति का स्मरण करते हुए मन पवित्र हुआ, आपके गुणानुवाद को सुनने से कान पवित्र हुए तथा आपके गुणों की अनुमोदना करते हुए मन परम पवित्र हुआ ।” “हे भगवन् ! मैं आपके चरणों को अष्टांग नमस्कार करता हुआ सर्वांग पवित्र हुआ हूँ । हे जिनेन्द्र देव ! धन्य आज का दिन ! धन्य आज की घड़ी ! धन्य यह माह ! धन्य यह संवत्सर वर्ष ! जो इस काल में मैं आपके दर्शन करने को सम्मुख हुआ हूँ। हे भगवन् ! आपके दर्शन करने से मुझे ऐसा आनन्द हुआ मानो, नौ निधियाँ पाई हों या चिन्तामणि रत्न पाया हो अथवा कामधेनु, चित्रावेलि घर में आई हो । मानो कल्पतरु मेरे आँगन में ही उदित हुआ हो एवं पारस की प्राप्ति हुई है। अथवा जिनराज ने निरन्तराय मेरे हाथ से आहार लिया हो एवं तीन लोक का राज ही मैंने पाया हो अथवा आज ही मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति हुई हो। सम्यक्त्व रत्न तो मुझे सहज ही उत्पन्न हुआ है ऐसे सुख की महिमा को मैं क्यों न कहूँ !” “हे भगवन् ! आपके गुणों की महिमा का वर्णन करते हुए जिह्वा तृप्त नहीं होती । आपके रूप का अवलोकन करते हुए नेत्र तृप्त नहीं होते । हे भगवन् ! मेरा इस समय कैसा उत्कृष्ट पुण्य का उदय आया है। और किसप्रकार काललब्धि प्राप्त हुई, जिसके निमित्त से सर्वोत्कृष्ट त्रैलोक्य पूज्य देव मैंने पाये। धन्य मेरा यह मनुष्य भव ! जो आपके
SR No.008363
Book TitlePanch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size215 KB
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