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________________ पदार्थ विज्ञान धर्मास्तिकाय आदि के असंख्यप्रदेश ऐसे के ऐसे बिछे - फैले हुए हैं, आकाश के अनंत प्रदेश ऐसे के ऐसे बिछे - फैले हुए हैं, उनमें कभी एक भी प्रदेश का क्रम आगे-पीछे नहीं होता, उसीप्रकार द्रव्य का अनादिअनंत प्रवाहक्रम भी कभी खण्डित नहीं होता। 'प्रवाहक्रम' कहकर आचार्यदेव ने अनादि अनंत ज्ञेयों को एकसाथ व्यवस्थित बतला दिया है । 'प्रवाहक्रम' कहने से समस्त परिणामों का क्रम व्यवस्थित ही है, कोई भी परिणाम - कोई भी पर्याय आगे-पीछे नहीं होते। इस प्रतीति में ही द्रव्यदृष्टि और वीतरागता है। समय-समय के परिणामों का एकदम सूक्ष्म सिद्धान्त समझाने के लिए प्रदेशों का उदाहरण दिया है। यद्यपि वह भी सूक्ष्म मालूम होता है, परन्तु परिणाम की अपेक्षा तो स्थूल ही है। यदि अपने लक्ष्य में वस्तु का स्वरूप आ जाये तो समझ में आना कठिन नहीं है। जीने (सीढ़ी) का दृष्टान्त देते हुए कहते हैं कि जिसप्रकार क्षेत्र से देखने पर पूरा जीना ऐसे का ऐसा स्थित है; उसका छोटा अंश प्रदेश है, और जीने की लम्बाई से देखने पर एक के बाद एक सीढ़ियों का प्रवाह है, पूरे जीने का प्रवाह एक है, उसकी एक-एक सीढ़ी उसके प्रवाह का अंश है, उन सीढ़ियों के प्रवाह का क्रम टूटता नहीं, दो सीढ़ियों के बीच में भी छोटे-छोटे भाग किये जायें तो अनेक भाग होते हैं, उस चढ़ते हुए प्रत्येक सूक्ष्म भाग को परिणाम समझना चाहिए। उसीप्रकार आत्मा असंख्य प्रदेशों में फैला हुआ एक है और उसके क्षेत्र का प्रत्येक अंश प्रदेश है। तथा सम्पूर्ण द्रव्य का अस्तित्व अनादि अनंत प्रवाहरूप से एक है और उस प्रवाह का प्रत्येक समय का अंश परिणाम है। उन परिणामों का प्रवाहक्रम जीने की सीढ़ियों की भाँति क्रमबद्ध है। परिणामों का वह प्रवाहक्रम आगे-पीछे नहीं होता, इसलिये सब कुछ जैसा है वैसा जानना ही आत्मा का स्वभाव है। वस्तु जैसी हो वैसी न मानकर उसे अन्य प्रकार से माने तो वे ज्ञान व श्रद्धा दोनों सच्चे नहीं हैं। ६ 8 प्रवचनसार-गाथा ९९ अब उन परिणामों का एक-दूसरे में अभाव बतलाते हैं । जिसप्रकार विस्तारक्रम का कारण प्रदेशों का परस्पर व्यतिरेक है, उसीप्रकार प्रवाहक्रम का कारण परिणामों का परस्पर व्यतिरेक है। द्रव्य में विस्तारक्रम ( क्षेत्र - अपेक्षा से विस्तार का कारण ) प्रदेशों का परस्पर भिन्नत्व है। पहले प्रदेश का दूसरे में अभाव - इसप्रकार प्रदेशों के भिन्न-भिन्नपने के कारण विस्तारक्रम रचा हुआ है। यदि एक-दूसरे में अभाव न हो और एक प्रदेश दूसरे में भी भावरूप से वर्तता हो, सब मिलकर एक ही प्रदेश हो, तो द्रव्य का विस्तार ही न हो, द्रव्य एकप्रदेशी ही हो जाये। इसलिए विस्तार क्रम कहने से ही प्रदेश एक-दूसरे के रूप में नहीं है - ऐसा आ जाता है। 'विस्तारक्रम' अनेकता का सूचक है, क्योंकि एक में क्रम नहीं होता। सब में एकता न हो, किन्तु भिन्नता हो, तभी अनेकता निश्चित होती है और अनेकता हो, तभी विस्तारक्रम होता है; इसलिए विस्तारक्रम का कारण प्रदेशों की परस्पर भिन्नता है। इसीप्रकार अब विस्तारक्रम की भाँति प्रवाहक्रम का स्वरूप कहा जाता है। 'प्रवाहक्रम' कहते ही परिणामों की अनेकता सिद्ध होती है और 'परिणामों की अनेकता' कहते ही एक का दूसरे में अभाव सिद्ध होता है, क्योंकि एक का दूसरे में अभाव हो तभी अनेकता हो । यदि ऐसा न हो तो सब एक ही हो जाये। विस्तारक्रम में जिसप्रकार एक प्रदेश का दूसरे में अभाव है, उसीप्रकार प्रवाहक्रम में एक परिणाम का दूसरे में अभाव है। इसप्रकार परिणामों में परस्पर एक का दूसरे में अभाव होने से अनादि-अनंत प्रवाहक्रम रचा हुआ है। ऐसा द्रव्य का स्वभाव है। ऐसे परिणामस्वभाव में द्रव्य स्थित है। यहाँ विस्तारक्रम तो दृष्टान्तरूप है और प्रवाहक्रम सिद्धान्तरूप है। दृष्टान्त सर्वप्रकार से लागू नहीं होता। पुद्गल और कालद्रव्य का विस्तार तो एकप्रदेशी ही है, इसलिये उसमें प्रदेशों के परस्पर व्यतिरेक का दृष्टान्त
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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