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पदार्थ विज्ञान
प्रवचनसार-गाथा ९९
लागू नहीं होता, किन्तु प्रवाहक्रम का जो सिद्धान्त है, वह समस्त द्रव्यों में समान रीति से लागू होता है।
प्रदेशों के विस्तारक्रम की भाँति द्रव्य का अनादि-अनंत लम्बा प्रवाहक्रम होता है और यह प्रवाहक्रम तभी सम्भव है जबकि एक परिणाम का दूसरे परिणाम में अभाव हो । पहला परिणाम दूसरे परिणाम में नहीं है, दूसरा तीसरे में नहीं है - इसप्रकार परिणामों में व्यतिरेक होने से द्रव्य में प्रवाहक्रम है। द्रव्य के अनादि-अनंत प्रवाह में एक के बाद एक परिणाम क्रमशः होते रहते हैं। ऐसे ये समस्त द्रव्य मात्र ज्ञेय हैं। इन ज्ञेय द्रव्यों की यथावत् प्रतीति करने से श्रद्धा में जो निर्विकल्पता और वीतरागता होती है, वही एक मात्र यथार्थ मोक्ष का मार्ग है।
अहो! जहाँ एक ही द्रव्य के एक परिणाम में दूसरे परिणाम का भी अभाव है, वहाँ एक द्रव्य की अवस्था में दूसरा द्रव्य कुछ करे - यह बात ही कहाँ रहती है? एक तत्त्व दूसरे तत्त्व में कुछ करता है अथवा एक द्रव्य के क्रमपरिणामों में परिवर्तन किया जा सकता है - ऐसा जो मानता है उसे ज्ञेयतत्त्व की खबर नहीं है। __कोई ऐसा माने कि मैंने अपनी बुद्धि से पैसा कमाया तो उसकी मान्यता मिथ्या है, क्योंकि बुद्धि का जो परिणाम हुआ वह आत्मा के प्रवाहक्रम में आया हुआ परिणाम है और जो पैसा आया वह पुद्गल के प्रवाहक्रम में आया हुआ पुद्गल का परिणाम है। दोनों द्रव्य अपनेअपने प्रवाहक्रम में भिन्न-भिन्न रूप से वर्त रहे हैं। आत्मा अपने परिणामप्रवाह में स्थित है और जड़पदार्थ जड़ के परिणाम-प्रवाह में स्थित है। दोनों पदार्थों का अस्तित्व भिन्न-भिन्न है। जिसने पदार्थों का ऐसा स्वरूप जाना कि 'मैं पर में कुछ फेरफार नहीं करता हूँ या पर के कारण मुझमें कुछ फेरफार नहीं होता है' - उसके मिथ्याबुद्धि दूर हो गई, इसलिये वह समस्त द्रव्यों का ज्ञाता रह गया। जिसप्रकार केवली भगवान वीतरागरूप
से सबके ज्ञाता हैं, उसीप्रकार यह भी ज्ञाता ही है। अभी साधक हैं, इसलिये अस्थिरता से राग-द्वेष होते हैं, किन्तु वे भी ज्ञाता का ज्ञेय है। ज्ञान और राग की एकतापूर्वक राग-द्वेष नहीं होते, किन्तु ज्ञान के ज्ञेयरूप से राग-द्वेष होते हैं। इसलिये अभिप्राय से तो वह साधक भी पूर्ण ज्ञाता ही है। __ यथार्थ वस्तुस्वरूप को जानने से स्वयं छहों द्रव्यों का ज्ञाता हो गया
और छहों द्रव्य ज्ञान में ज्ञेय हुए। इसप्रकार स्वयं एक ज्ञाता और छहों द्रव्य ज्ञेय- ऐसा ज्ञातापना बतलाने के लिये स्वात्मानुभवमनन' में कहा है कि आत्मा सप्तम द्रव्य हो जाता है।
आत्मा में केवलज्ञान का सारा दल और उसके सामने लोकालोकरूप सम्पूर्ण ज्ञेयों का दल; बस ज्ञेय-ज्ञायक स्वभाव रह गया । ज्ञेय-ज्ञायकपने में राग-द्वेष या फेरफार करना कहाँ रहा? अहो! ऐसे ज्ञायक स्वभाव का स्वीकार तो कर! इसकी स्वीकृति में वीतरागी श्रद्धा है और उसी में वीतरागता तथा केवलज्ञान के बीज हैं।
इस उपर्युक्त कथन में दो बातें हुई हैं :
(१) प्रथम तो, क्षेत्र के दृष्टान्त से द्रव्य के अनादि-अनंत प्रवाह को एक समप्रवृत्ति बतलाई और उस प्रवाहक्रम के सूक्ष्म अंश को परिणाम कहकर द्रव्य को 'सत्' सिद्ध किया तथा उसमें अखण्ड अस्तित्व की अपेक्षा से एकत्व और परिणामों की अपेक्षा से अनेकत्व बताकर सत् में एकत्व-अनेकत्व भी सिद्ध किया।
(२) दूसरे, परिणामों का परस्पर व्यतिरेक सिद्ध किया।
इसप्रकार दो बातें सिद्ध कीं। अब उनका विस्तार करके उसमें से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य निकालते हैं।
"जिसप्रकार वे प्रदेश अपने स्थान में स्वरूप से उत्पन्न और पूर्वरूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एक वास्तुपने द्वारा