________________
गाथा ९९ पर प्रवचन प्रवचनसार की यह गाथा अलौकिक है। इस गाथा में आचार्यदेव ने वस्तुस्वभाव का रहस्य भर दिया है। उत्पाद-व्यय-धूवयुक्त परिणाम द्रव्य का स्वभाव है और उस स्वभाव में द्रव्य नित्य अवस्थित है, इसलिए द्रव्य 'सत्' है।
यहाँ द्रव्य के समय-समय के परिणाम में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य समझाने के लिए आचार्यदेव द्रव्य के असंख्यप्रदेशी क्षेत्र का उदाहरण देते हैं। जिस प्रकार द्रव्य को संपूर्ण विस्तार क्षेत्ररूप से लक्ष्य में लिया जाये तो उसका वास्तु (क्षेत्र) एक है, उसीप्रकार संपूर्ण द्रव्य के तीनों काल के समयसमय के परिणामों को एक साथ लक्ष्य में लिया जाये तो उसकी वृत्ति एक है। जिसप्रकार क्षेत्र में प्रदेशक्रम का अंश प्रदेश है, उसीप्रकार द्रव्य के प्रवाहक्रम का अंश परिणाम है।
देखो, यह प्रवचनसार का ज्ञेय अधिकार है; अतः यहाँ कहा है कि समस्त ज्ञेय सत् है और समस्त ज्ञेय जैसे हैं, वैसे एक साथ ज्ञान में ज्ञात होते हैं। आत्मा ज्ञान का सागर है और समस्त लोक ज्ञेयों का सागर है तथा दोनों में मात्र ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्म या भोक्ता-भोग्य सम्बन्ध नहीं है। बस इसी में से वीतरागता निकलती है, क्योंकि मात्र ज्ञेय-ज्ञायक संबंधों में फेरफार करने-कराने की बुद्धि नहीं होती। देखो, आचार्यदेव ने प्रत्येक गाथा में वीतरागता के बीज बोए हैं, अतः सभी गाथाओं में से वीतरागता निकलती है।
समयसार के सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार में भी यही कहा है कि द्रव्य अपने क्रमबद्ध परिणाम से उत्पन्न होता है। यह बात कहकर वहाँ सम्यग्दर्शन का सम्पूर्ण विषय बतलाया है, द्रव्यदृष्टि कराई है। यहाँ ज्ञानप्रधान कथन है, अतः समस्त द्रव्य परिणमन-स्वभाव में स्थित हैं - ऐसा कहकर पूर्ण
प्रवचनसार-गाथा ९९ ज्ञान और पूर्ण ज्ञेय बतलाये हैं। ऐसे सर्व ज्ञेयों के स्वभाव को और उन्हें जानने वाले ज्ञानस्वभाव की श्रद्धा करना ही तो सम्यग्दर्शन है।
प्रत्येक आत्मा, प्रत्येक परमाणु और धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य पृथक्पृथक् स्वयंसिद्ध पदार्थ हैं। सामान्यतया देखने पर प्रत्येक द्रव्य का क्षेत्र अखण्ड है; एक है, तथापि उस क्षेत्र के विस्तार का जो सूक्ष्म अंश है, वह प्रदेश है। छह द्रव्यों में से परमाणु और काल का क्षेत्र एकप्रदेशी ही है तथा आत्मा का क्षेत्र असंख्यातप्रदेशी है। वह समग्र रूप से एक होने पर भी उसका अंतिम अंश प्रदेश है। इसप्रकार यहाँ क्षेत्र का दृष्टान्त है और वस्तु के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य परिणामों को समझाना सिद्धांत है। जिसप्रकार असंख्यप्रदेशी विस्तार को एकसाथ लेने से द्रव्य का क्षेत्र एक है, उसीप्रकार प्रत्येक द्रव्य की अनादि-अनंत परिणमनधारा समग्र रूप से एक है। तथा उस सम्पूर्ण प्रवाह का छोटे से छोटा एक अंश परिणाम है। प्रत्येक परिणाम को पृथक् किये बिना समग्ररूप से द्रव्य के अनादि-अनंत प्रवाह को देखने पर वह एक है। अनादि निगोद से लेकर अनंत सिद्धदशा तक द्रव्य का परिणमन-प्रवाह एक ही है। जिसप्रकार द्रव्य का सम्पूर्ण क्षेत्र एक साथ फैला है, उसे प्रदेशभेद से न देखा जाये तो उसका क्षेत्र एक ही है; उसी प्रकार त्रिकाली द्रव्य के प्रवाह में परिणाम का भेद न किया जाये तो संपूर्ण प्रवाह एक ही है और उस त्रैकालिक प्रवाहक्रम का प्रत्येक अंश परिणाम है।
यहाँ प्रदेशों का विस्तारक्रम क्षेत्र-अपेक्षा से है और परिणामों का प्रवाहक्रम परिणमन-अपेक्षा से है। यहाँ क्षेत्र का दृष्टांत देकर आचार्यदेव परिणामों का स्वरूप समझाना चाहते हैं।
यह ज्ञान में ज्ञात होने योग्य ज्ञेय पदार्थों का वर्णन है। यद्यपि बात सूक्ष्म है, तथापि भाई! यह सब ज्ञेय है। अतः ज्ञान में अवश्य ज्ञात हो सकते हैं और तेरा ज्ञानस्वभाव समस्त ज्ञेयों को जान सकता है। आत्मा ज्ञाता है और स्वयं स्वज्ञेय भी है, तथा अन्य जीव-पुद्गलादि परज्ञेय हैं।