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________________ पदार्थ विज्ञान जैसे वे प्रदेश अपने स्थान में स्वरूप से उत्पन्न और पूर्वरूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एकवास्तुपने द्वारा अनुत्पन्नअविनष्ट होने से उत्पत्ति-संहार-ध्रौव्यात्मक हैं; उसीप्रकार वे परिणाम अपने अवसर में स्वरूप से उत्पन्न और पूर्वरूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एक-प्रवाहपने द्वारा अनुत्पन्न अविनष्ट होने से उत्पत्ति-संहार-ध्रौव्यात्मक हैं और जैसे वास्तु का जो छोटे से छोटा अंश पूर्वप्रदेश के विनाश-स्वरूप है वही (अंश) उसके बाद के प्रदेश का उत्पादस्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एकवास्तुपने द्वारा अनुभयस्वरूप है (अर्थात् दो में से एक भी स्वरूप नहीं है); इसीप्रकार प्रवाह का जो छोटे से छोटा अंश पूर्वपरिणाम के विनाशस्वरूप है, वही उसके बाद के परिणाम के उत्पादस्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एकप्रवाहपने द्वारा अनुभयस्वरूप है। इसप्रकार स्वभाव से ही विलक्षण परिणामपद्धति में (परिणामों की परम्परा में) प्रवर्तमान द्रव्य स्वभाव का अतिक्रम नहीं करता इसलिये सत्त्व को त्रिलक्षण ही अनुमोदना चाहिये - मोतियों के हार की भाँति । __ जैसे :- जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है - ऐसे लटकते हुए मोतियों के हार में, अपने-अपने स्थानों से प्रकाशित होते हुए समस्त मोतियों में, पीछे-पीछे के स्थानों में पीछे-पीछे के मोती प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले-पहले के मोती प्रगट नहीं होते इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति का रचयिता सूत्र अवस्थित होने से त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धि को प्राप्त होता है। इसीप्रकार जिसने नित्यवृत्ति ग्रहण की है - ऐसे रचित (परिणमित) द्रव्य में अपने-अपने अवसरों में प्रकाशित (प्रकट) होते हुए समस्त परिणामों में पीछे-पीछे के अवसरों पर पीछे-पीछे के परिणाम प्रगट होते हैं इसलिये, और पहले-पहले के परिणाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिये, तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचनेवाला प्रवाह अवस्थित होने से त्रिलक्षणपना प्रसिद्धि को प्राप्त होता है। भावार्थ :- प्रत्येक द्रव्य स्वभाव में रहता है इसलिये 'सत्' है। वह स्वभाव उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप परिणाम है। जैसे द्रव्य के विस्तार का छोटे से छोटा अंश प्रदेश है, उसीप्रकार द्रव्य के प्रवाह का छोटे से छोटा अंश परिणाम है। प्रत्येक परिणाम में अपने रूप से उत्पन्न होता है, पूर्वरूप से नष्ट होता है और सर्व परिणामों में एकप्रवाहपना होने से प्रत्येक परिणाम उत्पाद-विनाश से रहित एकरूप-ध्रुव रहता है। उत्पाद-व्ययध्रौव्य में समय-भेद नहीं है, तीनों ही एक ही समय में हैं। ऐसे उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक परिणामों की परम्परा में द्रव्य अपने स्वभाव से विद्यमान रहता है; इसलिये द्रव्य स्वयं भी, मोतियों के हार की भाँति, उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है।।९९ ।। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने पर द्रव्य 'सत' है अपने सुभावपरनति विर्षे सदाकाल, तिष्ठतु है सत्तारूप वस्तु सोई दर्व है। द्रव्य को जो गुनपरजाय विर्षे परिनाम, निश्चकरि ताही को स्वभाव नाम सर्व है।। सोई ध्रुव-उत्पाद-व्यय इन भावनि , सदा सनबंधजुत राजत सुपर्व है। ऐसी एकताई कुन्दकुन्दजी बताई 'वृन्द' वन्दतु है तिन्हें सदा त्यागि उर गर्व है।। जैसे परदेशनि को त्रिधारूप सिद्ध करी, तैसे परिनामह को ऐसे भेद कहा है। पहिले समै के परिनाम उतपादरूप, पीछे की अपेच्छा सोई वयभाव गहा है।। सदा एक दर्व के आधार परवाह बहै. तातें द्रव्य द्वारत सो ध्रौव्य सरदहा है। ऐसे उतपाद-व्यय-ध्रुवरूप परिनाम, दर्व को सुभाव निरुपाध सिद्ध लहा है। - श्री प्रवचनसार-परमागम, चतुर्थ अधिकार : वृन्दावनदास
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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