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________________ प्रकाशकीय (द्वितीय संस्करण) आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के प्रवचनसार परमागम की गाथा ९९, १०० व १०१ पर हुए प्रवचनों का संकलन ‘पदार्थ विज्ञान' का द्वितीय संस्करण प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है। उपर्युक्त गाथाओं के प्रस्तुत प्रवचनों में जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्त उत्पादव्यय-ध्रौव्य के द्वारा पदार्थविज्ञान विश्वव्यवस्था और वस्तुस्वातंत्र्य का विशद विवेचन हुआ है। वस्तुव्यवस्था को यथार्थ समझने पर परद्रव्य के कर्तृत्व की मिथ्या मान्यता का समूल छेदन-भेदन करने के लिए यह अनुपम कृति है। तात्कालिक परिस्थितियों की जानकारी हेतु प्रथम संस्करण का प्रकाशकीय भी यथावत पुनः दिया है। शुद्धात्मा के प्रतिपादक ग्रन्थाधिराज समयसार के मर्म समझने हेतु प्रवचनसार का अध्ययन अत्यन्त उपयोगी है, अतः समयसार के रसिकों से भी निवेदन है कि वे इस ‘पदार्थ-विज्ञान' का बारीकी से अध्ययन करें तथा इस सम्बन्ध में अपने अभिप्राय जरूर भेजें। वैसे प्रवचनसार के समग्र विषय को स्पष्ट समझने के लिए पूज्य गुरुदेवश्री के प्रवचनसार पर हुए प्रवचनों का संकलन 'दिव्यध्वनिसार' नाम से उपलब्ध है। साथ ही डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत प्रवचनसार अनुशीलन व प्रवचनसार का सार भी उपलब्ध है। दोनों के प्रवचनों की सी.डी. भी आप मँगवा सकते हैं। ___ इस कृति के सम्पादन हेतु पण्डित रतनचन्दजी भारिल्ल को अनेकशः धन्यवाद! मुख पृष्ठ को तात्त्विक चित्र से आकर्षक बनाने तथा प्रिन्टिंग-बाइण्डिग में श्री अखिल बंसल का और टाईप सैटिंग में श्री कैलाशचन्द्र शर्मा का सहयोग रहा है, अतः हम उनके भी आभारी हैं। इस पुस्तक को अल्पमूल्य में आपके पास पहुँचाने में सहयोग देने वाले दातारों को भी हार्दिक बधाई! - ब्र. यशपाल जैन, एम.ए. प्रकाशनमंत्री, टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर (राज.) प्रस्तावना जैन-मान्यतानुसार यह विश्व अनादिनिधन है । न तो इसे किसी ने बनाया है और न कोई इसका विनाश कर सकता है। लोक में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - ये छह द्रव्य हैं। इन छहों द्रव्यों या पदार्थों को ही विश्व कहते हैं । द्रव्य या पदार्थ को परिभाषित करते हुए आचार्य उमास्वामी ने कहा है कि 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्' तथा 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' अर्थात् स्वभाव को छोड़े बिना जो वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-संयुक्त है तथा गुणपर्यायवान है, उसे द्रव्य कहते हैं। ये छहों द्रव्य लोक में अनादिकाल से हैं और अनंतकाल तक रहेंगे। जाति की अपेक्षा से छह हैं, पर संख्या की अपेक्षा देखा जाय तो जीव अनंत हैं, पुद्गल अनन्तानन्त हैं, धर्म, अधर्म व आकाश एकएक द्रव्य हैं और कालद्रव्य असंख्य हैं। इन द्रव्यों के समूहरूप विश्व उत्पादस्वरूप होकर भी अनादि है और व्ययरूप होकर भी अनन्त । ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के ज्ञेयाधिकार में तो इनका प्रतिपादन किया ही है, पंचास्तिकायसंग्रह में भी इनका विस्तृत विवेचन किया है जो मूलतः पठनीय है, क्योंकि जिनागम में प्रतिपादित द्रव्य एवं पदार्थ व्यवस्था की जानकारी के बिना जिन-अध्यात्म में प्रवेश पाना एवं उसके रहस्यों को समझ पाना संभव नहीं है। 'धर्म' व 'अधर्म' शब्द वैसे तो सम्यक्त्व-मिथ्यात्व, पुण्य-पाप एवं कर्तव्य-अकर्तव्य आदि अनेक अर्थों में भी प्रयुक्त होते हैं, परन्तु इस प्रकरण में इन शब्दों की अपनी स्वतंत्र व्याख्या है। यहाँ ये पारिभाषिक शब्द के रूप में प्रयुक्त हैं। जो स्वयं गमन करते हुए जीव और पुद्गलों के गमन में निमित्त बनता है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं तथा जो स्वयं स्थित होते हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति में निमित्त बनता है उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं। जीवद्रव्य के सिवाय उपर्युक्त पाँचों द्रव्य-पदार्थ अजीव हैं, उनमें ज्ञानदर्शन-सुख आदि नहीं हैं। जिनमें ज्ञान-दर्शन-सुख पाये जायें वे जीव हैं तथा 3
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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