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________________ जिनमें ज्ञान-दर्शनरूप चेतना नहीं होती वे सब अजीव द्रव्य हैं। पुद्गल मूर्तिक है, शेष पाँचों द्रव्य-अमूर्तिक हैं। प्रदेशों की संख्या की अपेक्षा काल द्रव्य एकप्रदेशी है, शेष पाँच द्रव्य बहुप्रदेशी हैं। जिनके बहुत प्रदेश होते हैं उन्हें कायवान कहा जाता है, इस अपेक्षा पांचों द्रव्यों को पंचास्तिकाय भी कहते हैं। ये छहों द्रव्य अपने स्वरूप में पूर्ण स्वतंत्र व स्वावलम्बी हैं। इनमें जीव और पुद्गल के सिवाय शेष चारों द्रव्य तो त्रिकाल पूर्ण, शुद्ध और अविकारी ही हैं; इनमें तो विकार होता ही नहीं है। पुद्गल-परमाणु भी शुद्ध ही हैं, पर जब दो या दो से अधिक परमाणु मिलकर या बिछुड़कर स्कन्ध बनते हैं तब वे विकारी होते हैं; परन्तु उनके विकृत होने से भी उन्हें कोई हानि-लाभ नहीं है; क्योंकि उनमें सुख-दुख का अभाव है। एक जीव ही ऐसा है, जो अपनी अविकारी दशा में सुखी व विकारी दशा में दुःखी होता है और अनादिकाल से यह अपने स्वभाव, अपनी अनन्त शक्तियों से अपरिचित है। यही इसके दुःख का मूल है, अतः कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ प्रवचनसार की गाथा सं. ९९ से १०१ तक तीन गाथाओं में उपर्युक्त छहों द्रव्यों में प्रतिसमय होनेवाले उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के स्वरूप की जानकारी दी है। वस्तुस्वरूप की इतनी सूक्ष्म व्याख्या जिनागम के सिवाय अन्यत्र तो कहीं है ही नहीं, जिनागम में भी प्रवचनसार के सिवाय अन्यत्र दुर्लभ है। हाँ; तत्त्वार्थसूत्र, सवार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक में भी इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। यह जिनागम का अद्भुत सिद्धान्त है। इसी पर विश्व की व्यवस्था निर्भर है। जिसने इसे नहीं जाना उसने जिनागम को ही नहीं जाना - ऐसा माना जायगा । एतदर्थ जैनदर्शन के प्राणभूत इस सैद्धान्तिक विषय की चर्चा अत्यन्त आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है, क्योंकि वस्तु-व्यवस्था को समझे बिना धर्म का, मोक्षमार्ग का प्रारम्भ ही नहीं होता। देखो, आत्मा की पवित्र पर्याय का प्रकट होना ही तो धर्म की प्राप्ति है। इस दृष्टि से धर्म आत्मा की ही पर्याय है, जो आत्मा में ही होती है। आत्मा का धर्म आत्मा से ही होता है, न पर में होता है और न पर से होता है तथा पर्याय का धर्म पर्याय में से नहीं होता, द्रव्य में से होता है। धर्म तो पर्याय में ही प्रकट होता है, किन्तु पर्याय के सन्मुख देखने या पर्याय का आश्रय करने से नहीं, बल्कि स्वद्रव्य की सन्मुखता से स्वपर्याय में होता है। पर का तो आत्मा में सर्वथा अभाव ही है, अत: पर के आश्रय व परसन्मख देखने में धर्म प्रकट नहीं होता। जिसे धर्म करना है व अधर्म को दूर करना है और धर्ममय होकर सदा सुखी रहना है, उसे अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूप को समझकर अपने ध्रुव-स्वभाव अखण्ड आत्मद्रव्य पर दृष्टि ले जाना चाहिए। आत्मा में धर्मरूप नवीन पर्याय का उत्पाद, अधर्मरूप पूर्व-पर्याय का व्यय और ध्रौव्यमय होकर सदा सुखी रहने में अखण्ड-प्रवाह रूप आत्मा के स्वभाव का आश्रय स्वतः आ जाता है। ___ इसप्रकार धर्म करने की भावना में वस्तु के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभाव की स्वीकृति आ जाती है। यदि वस्तु में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य न हो तो अधर्म दूर होकर धर्म की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती और न आत्मा सदा अपने में स्थित रहकर सुखी हो सकता है। इसलिए धर्म करने वाले को वस्तु में प्रतिसमय होनेवाले उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभाव की प्रतीति होना ही चाहिए। एतदर्थ प्रवचनसार की उपर्युक्त गाथाओं पर हुए सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के प्रवचनों का प्रकाशन अत्यन्त उपयोगी होगा। यह जानकर वर्षों पूर्व हुए इन प्रवचनों का संकलन एवं संपादन करने का यह लघु प्रयास किया है। हमारे अनन्य साथी बालब्रह्मचारी श्री यशपालजी की पावन प्रेरणा इसके पुनः प्रकाशन में विशेष कार्यकारी रही है। आशा है पाठकगण इस कृति को भी अन्य कृतियों की भाँति अपनाकर हमारा श्रम सार्थक करेंगे। - पण्डित रतनचन्द भारिल्ल (vii)
SR No.008362
Book TitlePadartha Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size148 KB
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