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मुल में भूल परिणमन में काल -द्रव्य इत्यादि निमित्त है। उपादान और निमित्त यह दोनों अनादिकालीन हैं।
कोई यह कहे कि “यदि कोई यह माने कि सब मिलकर एक आत्मा ही है और कोई यह माने कि अनन्त आत्मा पृथक् हैं, किन्तु सबका साध्य तो एक ही है न !" तो यह बात बिलकुल गलत है। जिसने एक ही आत्मा को माना है, वह उपादान-निमित्त इन दो वस्तुओं को नहीं मानता; इसलिए वह अज्ञानी है और जो यह मानता है कि "अनन्त आत्मा प्रत्येक भिन्न-भिन्न है, मैं स्वाधीन आत्मा हूँ" - उसने वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जान लिया है। यह बात गलत है कि सबका साध्य एक ही है। ज्ञानी-अज्ञानी दोनों के साध्य पृथक् ही हैं।
जब आत्मा अपनी उपादान शक्ति से औंधा गिरता है, तब कुगुरुकुदेव-कुशास्त्र इत्यादि निमित्तरूप होते हैं और जब अपनी उपादान शक्ति से सीधा होता है, तब सच्चे देव-शास्त्र-गुरु निमित्तरूप होते हैं। निमित्त तो परवस्तु की उपस्थिति मात्र है, वह कहीं कुछ करवाता नहीं है। अपनी शक्ति से उपादान स्वयं कार्य करता है। उपादान और निमित्त दोनों अनादि हैं, किन्तु निमित्त-उपादान कुछ लेता-देता नहीं है ।।३।।
- निमित्त का तर्क - निमित्त कहै मौकों सबै, जानत है जग लोय ।
तेरो नाँव न जान ही, उपादान को होय ।।४।। अर्थ :- निमित्त कहता कि जगत के सभी लोग मुझे जानते हैं और उपादान कौन है, उसका नाम तक नहीं जानते।
समस्त जगत के लोग निमित्त का नाम जानते हैं। सहारा हो तो बैल चढ़े खान-पान की अनुकूलता हो तो धर्म हो; मानव देह हो तो मुक्ति हो - इसप्रकार निमित्त से कार्य होता है। यों समस्त विश्व के जीव मानते हैं और इसलिए वे निमित्त को जानते हैं; परन्तु उपादान को कोई नहीं
मूलमेंभून जानता। सारा संसार यह मानता है कि यदि बाह्य निमित्त ठीक हो तो आत्मा सुखी होता है, किन्तु उपादान का तो कोई नाम तक नहीं जानता; इसलिए हे उपादान ! तू मुफ्त की बड़ाई क्यों किया करता है, क्या लँगड़ा आदमी बिना लकड़ी के चल सकता है ? लकड़ी का निमित्त आवश्यक है, इसलिए निमित्त का ही बल है। इसप्रकार निमित्त तर्क करता है, किन्तु निमित्त का यह तर्क गलत है। लँगड़ा अपनी योग्यता से चलता है। यदि लकड़ी के कारण चलता हो तो लकडी से मर्दे को भी चलना चाहिए. किन्तु मुर्दे में चलने की योग्यता नहीं हैइसलिए वह नहीं चलता। इसका अर्थ यह है कि उपादान की शक्ति से ही कार्य होता है।
निमित्त कहता है कि यदि आप निमित्त के बल को नहीं मानते तो भगवान की प्रतिमा को नमस्कार क्यों करते हो ? वह भी निमित्त है या नहीं? और फिर मुक्ति प्राप्त करने के लिए मानव शरीर तो चाहिए ही? और यदि कान ठीक हों, तभी तो सुनकर धर्म प्राप्त होता है ? तात्पर्य यह है कि सर्वत्र निमित्त का ही बोलबाला है। दुनिया में किसी से पूछो तो सब यही कहेंगे।
इस संवाद से यह सिद्ध हो जायेगा कि निमित्त की ओर से दिये गये उपर्युक्त सभी तर्क वृथा हैं। निमित्त ने जो कुछ कहा है, वह सब भवभ्रमण करनेवाले जगत के अज्ञानी जीव मानते हैं, वे उपादान को नहीं पहिचानते। इस संवाद में उपादान-निमित्त के सिद्धान्त की बात है। उपादान-निमित्त दोनों अनादि-अनन्त हैं। इसमें उन दोनों का यथार्थ ज्ञान कराने के लिए उपदेश है।
अनादिकाल से जगत के अज्ञानी जीव यह नहीं जानते कि उपादान कौन है ? वे तो निमित्त को ही जानते हैं। छोटा बालक भी कहता है कि यदि अध्यापक हो तो अक्षर सीखे जायें, परन्तु यदि अध्यापक न हो तो कौन सिखाये ? किन्तु सच तो यह है कि जो प्रारम्भिक अक्षर अ आ इत्यादि सीखता है, वह उसके सीखने की अपनी शक्ति से सीखता है। किसी भैंसे