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मूल में भूल इत्यादि में अ आ इत्यादि सीखने की शक्ति नहीं है, इसलिए वे सीख नहीं सकते । समस्त जगत निमित्त को जानता है, बालक से लेकर माँ, धाता, अज्ञानी या मुनि से पूछो कि मुक्ति कैसे होती है ? तो कोई कहेगा कि बाह्य क्रिया से और कोई कहेगा कि पुण्य से मुक्ति होती है, किन्तु वे कोई आत्मा की मूल उपादान शक्ति को नहीं जानते । निमित्त ने अज्ञानियों को अपने पक्ष में रखकर यह युक्ति रखी है।
अब अज्ञानियों को अपने पक्ष में लेकर उपादान उसका उत्तर देता है
उपादान कहै रे निमित्त, तू कहा करै गुमान ।
मोकों जाने जीव वे, जो हैं सम्यक्वान ।।५।। अर्थ :- उपादान कहता है कि हे निमित्त ! तू अभिमान किसलिए करता है ? जो जीव सम्यग्ज्ञानी हैं, वे मुझे जानते हैं। आत्मा के स्वभाव को समझनेवाले ज्ञानियों को अपने पक्ष में रखकर उपादान कहता है कि - हे निमित्त ! तू अभिमान क्यों करता है ? तेरा अभिमान मिथ्या है। जगत के अज्ञानियों के झुण्ड तुझे जानते हैं तो इसमें तेरी क्या बड़ाई है ? किन्तु मुझे सभी ज्ञानी जानते हैं तो इसमें तेरी क्या बड़ाई है ? किन्तु मुझे सभी ज्ञानी जानते हैं। राख तो घर-घर में हर एक चूल्हे में होती है, इसलिए कहीं राख कीमती नहीं मानी जाती और हीरे के व्यापारी थोड़े होते हैं; इसलिए हीरे की कीमत कम नहीं हो जाती। इसप्रकार जगत के बहत से जीव यह मानते हैं कि दूसरे से काम होता है, किन्तु इतने मात्र से कहीं पर से कार्य नहीं हो जाता। उपादान-स्वभाव की बात को तो ज्ञानी ही जानते हैं। अज्ञानियों की वहाँ गति नहीं है।
निमित्त से कार्य नहीं होता, तथापि जब जीव स्वयं समझता है; तब सच्चे गुरु का ही निमित्त होता है। गुरु से ज्ञान नहीं और गुरु के बिना ज्ञान नहीं होता। सच्चे गुरु के बिना त्रिकाल में भी ज्ञान नहीं हो सकता और
मुल में भूल त्रिकाल में भी गुरु किसी को ज्ञान नहीं दे सकते । जब जीव स्वयं की शक्ति से सच्ची पहिचान करता है, तब सत्पुरुष की ही वाणी की उपस्थिति होती है, किन्तु सत्पुरुष की वाणी से जीव समझता नहीं है। जीव यदि स्वतः नहीं समझता तो वाणी को निमित्त नहीं कहा जा सकता।
प्रश्न - आप कहते हैं कि बिना निमित्त के कार्य नहीं होता और निमित्त से भी नहीं होता, किन्तु इन बातों में से यथार्थ कौन-सी है ? ___ उत्तर - दोनों ही यथार्थ हैं; क्योंकि निमित्त उपस्थित तो रहता ही है और निमित्त से कोई कार्य नहीं होता । इसप्रकार दोनों पहलुओं को समझ लेना चाहिए। जैसे दो आँखोंवाला आदमी सब कुछ ठीक देखता है, एक आँखवाला काना आदमी सब कुछ ठीक नहीं देख पाता है और दोनों आँखों से अंधा आदमी कुछ भी नहीं देख सकता। इसीप्रकार जो उपादान और निमित्त को वे जैसे हैं, उसीप्रकार जाने तो ठीक जाननेवाला (सम्यग्ज्ञानी) है
और जो यह मानता है कि निमित्त नहीं है अथवा निमित्त से कार्य होता है तो उपर्युक्त (काने के) दृष्टान्त की भाँति उसके ज्ञान में भूल है और जो निमित्तउपादान दोनों नहीं हैं - इसप्रकार दोनों को ही नहीं जानता-मानता, वह अंधे की भाँति बिलकुल ज्ञानहीन है।
प्रथम दोनों आँखों से सब कुछ ठीक देख-जानकर पश्चात् खास पदार्थ की ओर की एकाग्रता के लिए दूसरे पदार्थ की ओर से आँख बन्द कर ले तो यह ठीक है। इसीप्रकार पहले उपादान-निमित्त को ठीक जानकर पश्चात् स्वरूप में एकाग्रता करने के लिए निमित्त का लक्ष्य छोड़ देना ठीक है, किन्तु पहले उपादान-निमित्त को वह जैसा है, उसीप्रकार यथार्थरूप में समझ लेना चाहिए।
जब आत्मस्वभाव की प्रतीति करता है, तब निमित्त होता है। इसप्रकार ज्ञान करने के लिए दोनों हैं, किन्तु आदरणीय दोनों नहीं हैं । आदरणीय तो उपादान है और निमित्त हेय है। उपादान की शक्ति से कार्य होता है। जो