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________________ मूल में भूल सम्यग्ज्ञानी है अर्थात् आत्मा को पहिचाननेवाले हैं, वे ही उपादानशक्ति को जानते हैं। निमित्त कहता है कि - कहैं जीव सब जगत के, जो निमित्त सोई होय। उपादान की बात को, पूछे नाहीं कोय ।।६।। अर्थ - जगत के सब जीव कहते हैं कि जैसा निमित्त होता है, वैसा ही कार्य होता है। उपादान की बात को तो कोई पूछता ही नहीं है। निमित्त अपनी बलवत्ता बताने के लिए कहता है कि यदि अनुकूलठीक निमित्त हो तो काम हो; रोटी मिले तो जीवन रहे, मानव-देह मिले तो मुक्ति हो, काल ठीक हो तो धर्म हो; इसप्रकार सारी दुनिया कहती है, किन्तु यह कौन कहता है कि मनुष्य शरीर के बिना मुक्ति होती है ? इसलिए देखो, शरीर के निमित्त से ही काम होता है न? और यदि आप निमित्त से कुछ नहीं मानते हो तो भगवान की प्रतिमा को क्यों मानते हो ? इससे सिद्ध हुआ कि निमित्त ही बलवान है। निमित्त का यह तर्क ठीक नहीं है । मिथ्यात्व को जीतनेवाले जैन स्वतन्त्र वस्तुस्थिति को मानते हैं। भगवान की प्रतिमा के कारण अथवा उस ओर के राग के कारण धर्म नहीं मानते । प्रतिमा की ओर का जो शुभराग है, वह अशुभराग से बचने के लिए है। जैन अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव राग से या पर से कदापि धर्म नहीं मानते । जैन तो आत्मस्वभाव से धर्म मानते हैं। ___ सम्यग्दृष्टि जीव आत्मस्वभाव की प्रतीति होने पर जब शुद्धस्वभाव में स्थिर नहीं रह सकता, तब अशुभराग को छोड़कर उसके शुभराग आता है और उस राग में उपस्थित वीतराग प्रतिमा निमित्तरूप होती है। स्वयं अशुभ भाव से बचता है - इतना लाभ है, किन्तु प्रतिमा से अथवा अवशिष्ट राग से यदि आत्मा का लाभ माने तो वह मिथ्यादृष्टि है। जब सम्यग्दृष्टि को शुभराग होता है, तब उसमें प्रतिमा निमित्तरूप होती है। यह न जाने तो मूल में भून भी वह मिथ्यादृष्टि है। इसमें निमित्त का ज्ञान कराने की बात है, किन्तु यह नहीं है कि निमित्त से कोई कार्य होता है। आत्मस्वरूप की पहिचान के बाद जबतक स्वरूप की पूरी भक्ति न हो अर्थात् वीतरागता न हो, वहाँ बीच में शुभराग आये बिना नहीं रहता और शुभराग के निमित्त भी होते हैं, किन्तु जैन-सम्यक्त्वी राग से अथवा निमित्त से धर्म नहीं मानते। जो राग या निमित्त से धर्म मानता है, वह मिथ्यादृष्टि है। निमित्त कहता है कि भले ही सम्यक्त्वी राग से या निमित्त से धर्म नहीं मानते, किन्तु यदि सामने सुई पड़ी हो तो सुई का ज्ञान होगा या कैंची का? अथवा सामने आदमी का चित्र देखकर आदमी का ज्ञान होगा या घोड़े का? सामने जैसा निमित्त होगा, वैसा ही तो ज्ञान होगा। इसका यह अर्थ हुआ कि निमित्त से ही ज्ञान होता है, इसलिए निमित्त को ही बलवान मानना होगा। निमित्त का यह तर्क है। निमित्त का कथन बहुत लम्बा है। अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि जो भी होता है, वह निमित्त से होता ___ उपादान को जाननेवाले ज्ञानी कहते हैं कि निमित्त से ज्ञान होता ही नहीं, किन्तु उपादान की शक्ति से ही होता है । ज्ञान तो अपनी स्मृति से होता है। सुई को देखने से अपने ज्ञान की स्मृति नहीं हुई। सुई को देखने का काम ज्ञान ने किया या सुई ने ? ज्ञान से ही जानने का कार्य हुआ है। यदि सुई से ज्ञान होता हो तो अंधे आदमी के सामने सुई रखने पर उसे तत्सम्बन्धी ज्ञान होना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता; क्योंकि अंधे में वह शक्ति ही नहीं है। सुई तो जड़ है, जड़ में से ज्ञान नहीं आता । अज्ञानी की दृष्टि पर-निमित्त पर होने से वह स्वाधीन ज्ञान को नहीं जानता, इसलिए वह मानता है कि पर के कारण से ज्ञान हुआ है; अज्ञानी उपादान स्वरूप की बात भी नहीं पूछते। "चावल बिना अग्नि के पक सकते हैं ? कदापि नहीं, इसलिए चावल अग्नि
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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