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________________ मूल मेंभूल से पके या चावल से?" अग्नि से चावल पकते हैं - यह अंधदृष्टि से दिखाई देता है, किन्तु स्पष्टरूप से तो चावल चावल से ही पके हैं। पाकरूप अवस्था चावल में ही हुई है, अग्नि में नहीं। चावल में ही स्वतः पकने की शक्ति है, इसलिए वे पके हैं। वे अग्नि अथवा पानी से नहीं पके; इसीप्रकार रोटी भी स्वत: पकी है, अग्नि अथवा तवे से नहीं पकी है। निमित्त अपनी युक्ति को रखता हुआ कहता है कि - हे उपादान ! जगत में यह कौन कहता है कि रोटी स्वत: ही पकी है, अग्नि से रोटी नहीं पकी? तू समस्त विश्व से ही पूछकर देख । 'गेहूँ के परमाणुओं की जब पक्की अवस्था होनी थी, तब अग्नि और तवा मौजूद था; किन्तु रोटी नहीं बनी; इसप्रकार की तेरी लम्बी-लम्बी बातें जगत में कौन करता है ? सीधी और स्पष्ट बात है कि अग्नि से रोटी पकी है। भला ! इसमें क्या पूछना है ? इसलिए यह बात गलत है कि उपादान की शक्ति से ही कार्य होता है। उपादान उत्तर देता है - उपादान बिन निमित्त तू, कर न सके इक काज । कहा भयो जग ना लखै, जानत हैं जिनराज ।। अर्थ :- उपादान कहता है कि अरे निमित्त ! एक भी कार्य बिना उपादान के नहीं हो सकता - इसे जगत नहीं जानता तो क्या हुआ जिनराज तो इसे जानते हैं। उपादान जिनराज को अपने पक्ष में रखकर कहता है कि हे निमित्त ! तू रहने दे ! जगत के प्रत्येक पदार्थ के कार्य अपनी शक्ति से ही हो रहे हैं, कोई पर उसे शक्ति नहीं देता। यदि जीव इसप्रकार के स्वरूप को समझे तो उसे अपने भाव की ओर देखने का अवकाश (अवसर) रहे और अपने भाव में दोषों को दूर करके गुण ग्रहण करे, किन्तु यदि 'कर्म मुझे हैरान मुल में भूल करते हैं और सद्गुरु मुझे तार देंगे'- इसप्रकार निमित्त से कार्य का होना मानेगा तो उसमें कहीं भी स्वयं तो आया ही नहीं, उसमें अपनी ओर देखने का अवकाश ही नहीं रहा और केवल पराधीन दृष्टि रह गई। रोटी अग्नि से नहीं पकी, किन्तु निज में ही वह विशेषता है कि वह पकी है। अग्नि और तवे के होने पर भी कहीं रेत नहीं पकती; क्योंकि उसमें वैसी शक्ति नहीं है। जो पक्व पर्याय हुई है, वह रोटी की हुई है या तवे की ? रोटी स्वयं उस पर्यायरूप हुई है; इसलिए रोटी स्वयं पकी है। यदि शिष्य के उपादान में समझने की शक्ति न हो तो गुरु क्या करे ? श्री गुरु भले ही लाख प्रकार से समझायें, किन्तु शिष्य को अपनी शक्ति के बिना समझ में नहीं आ सकता, इसलिए उपादान के बिना एक भी कार्य नहीं हो सकता। निमित्त ने कहा था कि जगत के अंधे प्राणी उपादान के स्वरूप को नहीं समझते तो क्या हआ. परन्तु त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञदेव ही बस हैं। हजारों भेड़ों के सामने एक सिंह ही पर्याप्त है। जहाँ सिंह आता है, वहाँ सभी भेड़ें पूँछ दबाकर भाग जाती हैं। इसीप्रकार जगत के अनन्त जीवों का यह अभिप्राय है कि 'निमित्त से काम होता है', किन्तु वे सब अज्ञानी हैं। इसलिए उनका अभिप्राय यथार्थ नहीं है और 'उपादान शक्ति से ही सर्व कार्य होते हैं - यह माननेवाले थोड़े ही जीव हैं, तथापि वे ज्ञानी हैं; उनका अभिप्राय सच है। सत्य का संख्या के साथ सम्बन्ध नहीं होता। छप्पन के अकाल में पशुओं में खड़े रहने की भी शक्ति नहीं रही थी। यदि उन्हें सहारा देकर खड़ा भी किया जाता तो भी वे गिर पड़ते थे। जहाँ भूखे पशु में निज में ही खड़े रहने की शक्ति न हो, वहाँ बाह्य आधार के बल से कैसे खड़ा रखा जा सकता है ? यदि उपादान में ही शक्ति न हो तो किसी निमित्त के द्वारा कार्य नहीं हो सकता।
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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