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मूल मेंभूल
आत्मा के स्वभाव से ही आत्मा के सब काम होते हैं। पुण्य-पाप के परिणाम स्वयं करने से होते हैं, स्वयं जैसे परिणाम करे वैसे होते हैं। दूसरे जीवों को आशीर्वाद मिल जाए तो भला हो और पुण्य का समुद्र फटकर आत्मा की मुक्ति हो जाए यह बात गलत है। आत्मा का कार्य पराधीन नहीं है। भगवान की साक्षात् उपस्थिति भी उसे तारने के लिए समर्थ नहीं है और शिरच्छेद करनेवाला शत्रु भी डुबोने के लिए समर्थ नहीं है। प्रत्येक पदार्थ सदा भिन्न है, मैं भिन्न आत्मा हूँ और तू भिन्न आत्मा है, मैं तुझे कुछ भी नहीं कर सकता' तू अपने भाव से समझे तो तेरा कल्याण हो' - इसप्रकार भगवान तो स्वतंत्रता की घोषणा करके सदा उपादान पर उत्तरदायित्व डालते हैं। उपादान की जागृति के बिना कदापि कल्याण नहीं होता ||७||
निमित्त कहता है कि - देव जिनेश्वर गरु यति. अरु जिन आगम सार।
इह निमित्त से जीव सब, पावत हैं भवपार ।।८।। अर्थ :- निमित्त कहता है कि जिनेश्वरदेव, निर्ग्रन्थ गुरु और वीतराग का आगम उत्कृष्ट है - इन निमित्तों के द्वारा सभी जीव भव का पार पाते
मुल मेंभून देते हैं अथवा पचास प्रतिशत सहायता करते हैं - यह बात ठीक नहीं है।
सच्चे देव, निर्ग्रन्थ गुरु और त्रिलोकीनाथ परमात्मा के मुख से निकली हुई ध्वनि अर्थात् आगमसार - इन तीन निमित्तों के बिना मुक्ति नहीं होती। यहाँ पर 'आगमसार' कहा है; इसलिए आगम के नाम पर दूसरी अनेक पुस्तकें प्रचलित हैं, उनकी यहाँ पर बात नहीं है; किन्तु सर्वज्ञ की वाणी से परम्परा से आये हुए सत्शास्त्रों की बात है। अन्य कोई कुदेव, कुगुरु अथवा कुशास्त्र तो सत् का निमित्त भी नहीं हो सकता। सच्चे देवादि ही सत् के निमित्त हो सकते हैं। इतनी बात तो बिलकुल सच है, उसी को पकड़कर निमित्त कहता है कि भाई उपादान ! अपने ही एकान्त को नहीं खींचना चाहिए, कुछ निमित्त का भी विचार करना चाहिए अर्थात् वह कहना चाहता है कि निमित्त भी सहायक होता है।
निमित्त के तर्क का एक अंश इतना सत्य है कि आत्मकल्याण में सच्चे देव, गुरु, शास्त्र ही निमित्तरूप में उपस्थित होते हैं, उनकी उपस्थिति के बिना त्रिकाल में भी कोई मुक्ति नहीं पा सकता । सभी मार्ग समान हैं - यों माननेवाला तीनकाल और तीनलोक में सम्यग्दर्शन को नहीं पा सकता; प्रत्युत वह मिथ्यात्व के महापाप की पुष्टि करता है अर्थात् सर्वज्ञ वीतरागदेव, साधक संत, मुनि और सर्वज्ञ की वाणी ही निमित्त होती है - इतना तो सत्य है, किन्तु उससे आत्मा का कल्याण नहीं होता। वह आत्महित में सहायक नहीं है, कल्याण तो आत्मा स्वयं स्वतः समझे, तभी होता है।
समझने की शक्ति तो सभी आत्माओं में त्रिकाल है। जब उस शक्ति की सम्भाल करके आत्मा समझता है, तब निमित्त के रूप में परवस्तु सच्चे देव इत्यादि ही होते हैं। कुदेवादि को मानता हो और उसे सच्ची समझ हो यह नहीं हो सकता - इस बात को आगे रखकर निमित्त कहता है कि पहले मेरी ही आवश्यकता है, मुझसे ही कल्याण होता है।
उपादान उसके इस तर्क का खण्डन करता हुआ कहता है कि -
जिनेश्वरदेव श्री सर्वज्ञ भगवान को माने बिना आत्मा की मुक्ति नहीं होती। किसी कुदेवादि को मानने से मुक्ति नहीं होती, इसलिए पहले जिनेश्वरदेव को पहचानना चाहिए। इसप्रकार पहले निमित्त की आवश्यकता होती है, इसलिए पचास प्रतिशत मेरी सहायता से कार्य होता है, यह निमित्त का तर्क है।
यहाँ पर जीव जब अपना कल्याण करता है, तब निमित्त के रूप में श्री जिनेश्वरदेव ही होते हैं, उनके अतिरिक्त कुदेवादि तो निमित्तरूप कदापि नहीं होते - इतना सत्य है; किन्तु श्री जिनेश्वरदेव आत्मा का कल्याण कर