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________________ (१८) मूल में भूल यह निमित्त इस जीव के, मिल्यो अनन्ती बार। उपादान पलट्यो नहीं, तो भटक्यो संसार ।।९।। अर्थ :- उपादान कहता है कि यह निमित्त इस जीव को अनन्तबार मिला, किन्तु उपादान जीव स्वयं नहीं बदला; इसलिए वह संसार में भटकता रहा। ____ यदि देव-गुरु-शास्त्र का निमित्त आत्मकल्याण कर देता हो तो यह जीव साक्षात् त्रिलोकनाथ के पास अनन्त बार गया। फिर भी समझे बिना ज्यों का त्यों वापिस आ गया। उपादान अपनी शक्ति से नहीं समझा। भगवान कोई अपूर्व स्वरूप कहते हैं, यों परमार्थ को समझने की चिन्ता नहीं की और व्यवहार की स्वयं मानी हई बात के आने पर वह मान लेता है कि मैं यही कहता था और भगवान ने कहा है। इसप्रकार अपने गज (नाप) से भगवान का नाप करके विपरीत पकड़ को ही दृढ़ करता है; निमित्त भले ही सर्वोत्कृष्ट हो तथापि उपादान न बदले तो उसे सत् समझ में नहीं आता। अनन्त बार सच्चे रत्नादिक की सामग्री को जुटाकर साक्षात् तीर्थंकर की पूजा की, किन्तु निमित्त के अवलम्बन से रहित अपने स्वाधीन स्वरूप को नहीं समझा, इसलिए धर्म नहीं हुआ - इसमें तीर्थंकर क्या करें! सच्चे ज्ञानी गुरु और सत् शास्त्र भी अनन्त बार मिले, किन्तु स्वयं अन्तरंग स्वभाव को समझकर अपनी दशा को नहीं बदला: इसलिए जीव संसार में ही भटकता रहा। निमित्त ने कहा था कि - देव-गुरु-शास्त्र के निमित्त को पाकर जीव भव पार हो जाता है। उसके विरोध में उपादान ने कहा कि उपादान-जीव स्वयं धर्म को नहीं समझा तो सच्चे देव, गुरु, शास्त्र के मिलने पर भी संसार में परिभ्रमण करता है। यदि जीव स्वयं सत् को समझ ले तो देव- गुरु-शास्त्र को समझने का निमित्त कहा जाये, किन्तु यदि जीव समझे ही नहीं तो निमित्त कैसे कहलाये? यदि उपादान स्वयं कार्यरूप हो तो प्रस्तुत वस्तु को निमित्त मूल में भूल कहा जा सकता है, किन्तु उपादान स्वयं कार्यरूप में हो ही नहीं तो निमित्त भी नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक लट में तेल डालकर मस्तक सुन्दर बनाया - यह तभी तो कहा जायेगा, जब मस्तक में बाल की लटें हों, किन्तु यदि सिर में बाल ही न हों तो उपमा कहाँ लगेगी ! इसलिए कार्य तो उपादान के ही अधीन होता है। ___ सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के निमित्त के बिना कदापि सत्य नहीं समझा जा सकता, किन्तु इससे अपनी समझने की तैयारी हो; तब देव, गुरु, शास्त्र को ढूँढने के लिए जाना पड़े - ऐसा उपादान पराधीन नहीं है। हाँ, ऐसा नियम अवश्य है कि जहाँ अपनी तैयारी होती है, वहाँ निमित्त का योग अवश्य होता ही है। धर्मक्षेत्र महाविदेह में बीस महा धर्मधुरधर तीर्थंकर तो सदा विद्यमान होते हैं। महाविदेह में तीर्थंकर न हों - यह कदापि नहीं हो सकता। यदि अपनी तैयारी हो तो चाहे जहाँ सत् का निमित्त का योग मिल ही जाता है और यदि अपनी तैयारी न हो तो सत् निमित्त का योग मिलने पर भी सत् का लाभ नहीं होता। यहाँ पर संवाद में निमित्त की ओर से तर्क करनेवाला जीव ऐसा लिया है, जो सयाना है; समझने के लिए तर्क करता है और जो अन्त में उपादान की सब यथार्थ बातों को स्वीकार करेगा। वह ऐसा हठाग्रही नहीं है कि अपनी ही बात को खींचता रहे। वहाँ पर ऐसे ही जीव की बात है, जो सत्य-असत्य का निर्णय करके सत्य को तत्काल ही स्वीकार करे। देहादि की क्रिया से मुक्ति होती है अथवा पुण्य से धर्म होता है - इसप्रकार जीव ने अपनी विपरीत मान्यता बना रखी है। ऐसी स्थिति में भगवान के पास जाकर उनका उपदेश सुनकर भी जीव को धर्म का किंचित्मात्र भी लाभ नहीं हुआ। भगवान तो कहते हैं कि आत्मा देह की क्रिया कर ही नहीं सकता - यह बात उसके ज्ञान में नहीं जमी । यदि स्वयं समझे तो लाभ हो और तब भगवान इत्यादि को निमित्त कहा जाए। सच्चे
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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