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मूल में भूल
(२०) निमित्त के बिना ज्ञान नहीं होता, किन्तु सच्चे निमित्त के होने पर भी स्वयं न समझे तो ज्ञान नहीं होता। तो फिर निमित्त ने क्या किया ? यह तो मात्र उपस्थित रहकर अलग रहा।
सामान्यतया लोग अनेक बार कहा करते हैं कि "मैंने तो उसे बहुत कहा, किन्तु वह ठप्प हो गया है" अर्थात् मेरे कहने का उस पर किंचित्मात्र भी असर नहीं हुआ, किन्तु अरे भाई ! यदि वह मानता है तो अपने भाव से मानता है और यदि नहीं मानता है तो अपने भाव से वैसा करता है। किसी पर किसी का कोई असर होता ही नहीं है। निमित्त और उपादान दोनों स्वतंत्र पदार्थ हैं। ___ जीव को समझने के निमित्त अनन्त बार मिले, तथापि अपनी उपादान शक्ति से स्वयं नहीं समझा इसलिए संसार परिभ्रमण किया। इससे सिद्ध होता है कि निमित्त का कोई असर उपादान पर नहीं है।
यहाँ पर उपादान-निमित्त का संवाद चल रहा है। यहाँ तक ९ दोहों की व्याख्या की जा चुकी है। उपादान का अर्थ क्या है ? जो अपने स्वभाव से काम करे. सो उपादान है और उस काम के समय साथ ही दूसरी वस्तु उपस्थित हो, वह निमित्त है। उपादान और निमित्त दोनों जैसे हैं, उनका वैसा ही निर्णय करना भी एक धर्म है। धर्म दसरे भी हैं: सच्चे निर्णय पर्वक राग-द्वेष को दूर करके स्थिरता करना, सो दूसरा चारित्र धर्म है। आत्मवस्तु में अनन्त धर्म हैं। धर्म अर्थात् स्वभाव । आत्मा का जो भाव संसार के विकार भाव से बचकर अविकारी स्वभाव को धारण करता है, वह आत्मा का धर्म है। इसलिए स्वभाव को समझना ही प्रथम धर्म है । जो जीव स्वभाव को नहीं समझता उसे जन्म-मरण के नाश का और मुक्तिदशा के प्रकट होने का लाभ नहीं मिलता। जो स्वाधीन स्वभाव को नहीं समझे - ऐसे अज्ञानी जीव यह मानते हैं कि यदि दूसरी वस्तु हो तो आत्मा का कल्याण हो, उनका निर्णय ही विपरीत है। उन्हें आत्मकल्याण के सच्चे उपाय की
मूल में भून खबर नहीं है।
जब आत्मकल्याण की भावनावाला जीव सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के द्वारा आत्मा का निर्णय करता है; तब सच्चे देव, शास्त्र और गुरु की निमित्तरूप उपस्थिति होती है, किन्तु वे शास्त्र, गुरु आत्मा का ज्ञान नहीं करा देते । यदि स्वयं अपने ज्ञान से यथार्थ समझ सके तो समझा जा सकता है। बिना ज्ञान के छह-छह महीने तक उपवास किये, फिर भी सच्ची समझ नहीं पाई, इसलिए आत्मकल्याण नहीं हुआ।
प्रश्न - यह सब सूक्ष्म बातें हमारे किस काम की ?
उत्तर - यह आत्मा की बात है, आत्मकल्याण करना हो तो यह जान लेना चाहिए कि कल्याण कहाँ होता है और कैसे होता है! अपना कल्याण अपने ही स्वभाव की शक्ति से होता है, पर से नहीं होता। यदि अपने स्वभाव को समझ ले तो सच्ची श्रद्धा का लाभ हो और विपरीत श्रद्धा से होनेवाली महा हानि दूर हो; यही सर्व प्रथम कल्याण है।
आत्मा का निर्णय सच्चे देव, शास्त्र, गुरु से प्रकट होता है। जब यह निमित्त ने कहा, तब उपादान ने उसका उत्तर दिया कि भाई ! ये निमित्त तो अनन्त बार जीव को मिले, किन्तु स्वयं स्वभाव की महिमा को लाकर असंग आत्मतत्त्व का निर्णय नहीं किया; इसलिए संसार में परिभ्रमण करता रहा । तात्पर्य यह है कि कोई निमित्त आत्मा को लाभ नहीं करता।
हे भाई! यदि पर निमित्त से आत्मा के धर्म होता है - ऐसी परद्रव्याश्रित दृष्टि करोगे तो परद्रव्य तो अनन्त-अपार हैं, उसकी दृष्टि में कहीं भी अन्त नहीं आयेगा अर्थात् अनन्त पर पदार्थ की दृष्टि से छूटकर स्व-स्वभाव को देखने का अवसर कभी भी नहीं आयेगा, किन्तु मैं परद्रव्यों से भिन्न हूँ, मुझमें पर का प्रवेश नहीं है, मेरा कल्याण मुझमें ही है - ऐसी स्वाधीन द्रव्यदृष्टि करने पर अनन्त परद्रव्यों पर से दृष्टि छूट जाती है और स्वभावदृष्टि की दृढ़ता होती है तथा स्वभाव की ओर की दृढ़ता कल्याण का मूल है। परवस्तु तीन