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________________ मूल में भूल स्वभाव ही मुक्ति प्राप्त करता है और वह अन्तर में है । अन्तरंग की शक्ति में से मुक्ति प्रगट होती है; किसी देव, गुरु, शास्त्र, वाणी अथवा मनुष्य शरीर इत्यादि पर की सहायता से जीव की मुक्ति नहीं होती । प्रश्न- जो सच्चे गुरु होते हैं, वे भूले हुओं को मार्ग तो बतलाते ही हैं, इसलिए उनकी इतनी सहायता तो मानी ही जायेगी ? उत्तर - जो भूला हुआ है, वह पूछकर निश्चय करता है; सो किसके ज्ञान से निश्चय करता है, भूले हुए के ज्ञान से अथवा गुरु के ज्ञान से ? गुरु कहीं किसी के ज्ञान में निश्चय नहीं करा देते, किन्तु जीव स्वयं अपने ज्ञान में निश्चय करता है; इसलिए जो समझता है, वह अपनी ही उपादानशक्ति से समझता है। जैसे किसी को सिद्धपुर जाना है। उसने किसी जानकार से पूछा कि सिद्धपुर कहाँ है ? तब उसने जवाब दिया कि (१) यहाँ से सिद्धपुर आठ कोस दूर है। (२) मार्ग में जाते हुए बीच में दो बड़े शीतल छाया वाले वटवृक्ष मिलेंगे। (३) आगे चलने पर एक मीठे पानी का अमृत-सरोवर मिलेगा और उसके बाद तत्काल ही सिद्धपुर आयेगा । इसप्रकार जानकार ने कहा, किन्तु उस पर विश्वास करके निश्चय कौन करता है ? बतानेवाला या भूला हुआ आदमी ? जो भूला है, वह अपने ज्ञान में निश्चय करता है, इसीप्रकार मुक्ति की आकांक्षा रखनेवाला शिष्य पूछता है कि मुक्ति का अन्तरंग कारण और बहिरंग कारण क्या है ? और प्रभो ! मेरी सिद्धदशा कैसे प्रकट होगी, उसका उपाय-मार्ग क्या है ? श्रीगुरु उसका उत्तर देते हैं (१) आत्मा की पहिचान से और स्वाश्रय की पूर्णता से सिद्धदशा प्रकट होती है। (२) आत्मा की सच्ची पहिचान और श्रद्धा करने पर स्वभाव की परमशान्ति का अनुभव होता है। आत्मा की श्रद्धा और ज्ञानरूपी दो वटवृक्षों की शीतलता सिद्धदशा के मार्ग में आती है। (३) उसके बाद आगे बढ़ने पर चारित्रदशा प्रकट होती है अर्थात् स्वरूप-रमणतारूप अमृत-सरोवर मूल में भूल आता है। इसप्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप मोक्षमार्ग पूर्ण होने पर केवलज्ञान और सिद्धदशा प्रकट होती है। यहाँ पर उपादान- निमित्त सिद्ध करना है। जब शिष्य तैयार होकर श्रीगुरु से पूछता है कि प्रभु ! मुक्ति कैसे होगी ? तब श्रीगुरु उसे मुक्ति का उपाय बताते हैं, किन्तु जिसप्रकार उपाय बताया उसीप्रकार विश्वास लाकर निश्चय कौन करता है ? बतानेवाला या भूला हुआ ? जो अपने ज्ञान में भूला हुआ है, वही यथार्थ समझ से भूल को दूर करके अपने ज्ञान में निश्चय करता है। यह तो मुक्ति का उपाय है, उसकी महिमा को जानना चाहिए। जैसे कोई हीरा - माणिक की कीमत को जाने और जवाहरात की दुकान पर बैठे तो झट लाखों की आमदनी हो और कपड़ों को मैल न लगे; किन्तु यदि हलवाई की दुकान पर बैठे तो जल्दी कमाई न हो और कपड़ों को मैल लगे । इसीप्रकार यदि आत्मा के चैतन्यस्वभाव को पहिचानकर उसकी कीमत करे तो मोक्षरूपी आत्मलक्ष्मी झट प्राप्त हो जाए। स्वरूप की शक्ति का भान सो हीरे का व्यापार है, उससे मुक्तिलक्ष्मी झट प्राप्त हो जाती है और आत्मा को कर्ममल नहीं लगता। आत्मा की प्रतीति के बिना कभी भी मुक्ति नहीं होती और कर्ममल लग जाता है । आत्मा के अन्तरंग में से आत्मा के गुणों को ग्रहण किया जा सकता है, इसलिए आत्मा उपादान है। जिसमें से गुण का ग्रहण हो, वह उपादान है। चिदानन्द भगवान आत्मा अपनी अनन्त शक्ति से देह में विराजता है, उसे पहिचानकर उसमें से मुक्ति का माल निकालना है। यहाँ उपादान का स्वरूप बताया गया है। अब निमित्त का स्वरूप बताते हैं - - 'है निमित्त पर योग तैं' अर्थात् जब आत्मा अपने स्वरूप की पहिचान करता है, तब जो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु संयोगरूप में उपस्थित हों, वे निमित्त कहलाते हैं। उपादान निमित्त का यह सम्बन्ध अनादिकालीन हैं। सिद्धदशा में भी आत्मा की शक्ति उपादान है और स्थिति में अधर्मद्रव्य,
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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