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________________ मूल में भूल (१०२) ओर ला सकता है, इस न्याय में उपयोग की स्वतंत्रता बताई है और निमित्ताधीन दृष्टि को उड़ा दिया है। वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि एक-दूसरे का कुछ नहीं कर सकता - इसी को आगे कहते हैं - दूसरे प्रश्न का समाधान - सधै वस्तु असहाय जहाँ, तहाँ निमित्त है कौन ? ज्यों जहाज परवाह में, तिरै सहज बिन पौन ॥६॥ अर्थ :- प्रत्येक वस्तु स्वतंत्रता से अपनी अवस्था को (कार्य को) प्राप्त करती है, वहाँ निमित्त कौन ? जैसे जहाज प्रवाह में सहज ही पवन बिना ही तैरता है। जीव और पुद्गल द्रव्य शुद्ध या अशुद्ध अवस्था में स्वतंत्रपने से निमित्ताधीन परिणमन करते हैं। अज्ञानी जीव भी स्वतंत्रपने से निमित्ताधीन परिणमन करते हैं, कोई निमित्त उसे आधीन नहीं बना सकता। इस दोहे में वस्तुस्वभाव को विशेष स्पष्टता से बताया है। 'सधै मुक्ति के मार्ग में जिन महत्त्वपूर्ण विषयों का सम्यक् परिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है, उनमें से 'उपादान-निमित्त' भी एक ऐसा महत्त्वपूर्ण विषय है, जिसके सम्यक् ज्ञान बिना परावलम्बन की दृष्टि एवं वृत्ति समाप्त नहीं होती, स्वावलम्बन का भाव जागृत नहीं होता, मुक्ति के मार्ग का सम्यक् पुरुषार्थ भी स्फुरायमान नहीं होता है। निमित्तोपादान : एक अनुशीलन पृष्ठ- १ मूल में भूल असहाय' अर्थात् सभी वस्तुएँ स्वतंत्र हैं, एक वस्तु की दूसरी में नास्ति है, तब फिर उसमें निमित्त कौन हो सकता है ? एक वस्तु में दूसरी वस्तु को निमित्त कहना व्यवहार है-उपचार है। वस्तुस्वभाव पर से भिन्न शक्ति नहीं है, वह स्वभाव पर की अपेक्षा नहीं रखता और उस स्वभाव का साधन भी असहाय है। निमित्त निमित्त में भले रहे, परन्तु उपादान के कार्य में निमित्त कौन है ? वस्तु के अनंतगुणों में भी एक गुण दूसरे गुण से असहायस्वतंत्र है, तब फिर एक वस्तु का दूसरी भिन्न वस्तु के साथ तो कोई सम्बन्ध नहीं है। यहाँ स्वभाव दृष्टि के बल से कहते हैं कि एक वस्तु में दूसरी वस्तु का निमित्त भी कैसा ? निमित्त होता है, उसका ज्ञान गौणरूप में है। जैसे वायु की मौजूदगी के बिना जहाज पानी के प्रवाह में चलता है। उसी प्रकार आत्मा पर निमित्त के लक्ष्य के बिना और पुण्य-पाप विकार से रहित उपादान के लक्ष्य से स्वभाव में स्थिर हो गया है, उसमें निमित्त कौन है ? बाह्य में निमित्त है या नहीं इसका लक्ष्य नहीं है और अन्तर में शुक्लध्यान की श्रेणी में चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त करता है। एक क्षण में अनन्त पुरुषार्थ प्रकट करके केवलज्ञान प्रकट करता है - ऐसा असहाय वस्तुस्वभाव है। ऐसे आत्मस्वभाव की प्रतीति करके उसकी रमणता में स्थिर हो जाने पर बाह्य निमित्त का लक्ष्य नहीं रहता। विकार किसी निमित्त की प्रेरणा से नहीं होता। उपादान स्वयं अपनी पर्याय की योग्यता सेविकार करता है तो होता है। सारी वस्तु असहाय है और प्रत्येक पर्याय भी असहाय है। अहो ! जिसने ऐसा स्वतंत्र वस्तुस्वभाव प्रतीति में लिया है, वह अपनी निर्मलता के लिए किसका मुँह देखेगा ? ऐसी प्रतीति होने पर वह परमुखापेक्षी नहीं रहता अर्थात् मात्र स्वभाव की दृष्टि और एकाग्रता के
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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