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मूल में भूल
बल से विकार का क्षय होकर अल्पकाल में केवलज्ञान प्रकट होता है।
कोई पूछता है कि यदि निमित्त कुछ भी नहीं करता और निमित्त आरोप मात्र है तो फिर शास्त्रों में जो बारम्बार निमित्त से उपदेश पाया जाता है, उसका क्या कारण है ? उसका समाधान करते हुए इस अन्तिम दोहे में कहते हैं कि -
उपादान विधि निरवचन, है निमित्त उपदेश ।
वसे जु जैसे देश में, धरे सु तैसे भेष ॥७॥
अर्थ :- उपादान का कथन एक " योग्यता" शब्द द्वारा ही होता है; उपादान अपनी योग्यता से अनेक प्रकार परिणमन करता है, तब उपस्थित निमित्त पर भिन्न-भिन्न कारणपने का आरोप (भेष) आता है, इससे निमित्त द्वारा यह कार्य हुआ - ऐसा व्यवहार से कहा जाता है।
उपादान जब जैसे कार्य को करता है, तब वैसे कारणपने का आरोप (भेष) निमित्त पर आता है। जैसे कोई वज्र कायवान मनुष्य नरकगति योग्य मलिन भाव करता है तो वज्रकाय पर नरक का कारणपने का आरोप आता है और यदि जीव मोक्षयोग्य निर्मलभाव करता है तो उसी निमित्त पर मोक्षकारणपने का आरोप आता है। इसप्रकार उपादान के कार्यानुसार निमित्त में कारणपने का भिन्न-भिन्न आरोप दिया जाता है। इससे ऐसा सिद्ध होता है कि निमित्त से कार्य नहीं होता, परन्तु कथन होता है। अतः उपादान सच्चा कारण है और निमित्त आरोपित कारण है।
प्रत्येक समय का उपादान स्वतंत्र होने से वाणी के द्वारा नहीं कहा जा सकता । कथन में भेद आये बिना नहीं रहता। कथन में तो निमित्त का ज्ञान कराने के लिए निमित्त के द्वारा कथन करके समझाया जाता है, परन्तु जो निमित्त के ही कथन के पीछे लगे रहते हैं और वास्तविक आशय को नहीं पकड़ते, उनका लक्ष्य निमित्त पर ही बना रहता है। निमित्त के कथन
मूल में भूल
का अर्थ शब्दानुसार नहीं होता, किन्तु उपादान के भाव को ही मुख्य समझकर उसका यथार्थ अर्थ समझना चाहिए।
शास्त्रों में कर्मों का जो वर्णन है, वह भी निमित्त मात्र दिखाने के लिए व्यवहार से है अर्थात् आत्मा के अनेक प्रकार के भावों को पहचानने के लिए कर्मों के निमित्त से कथन किया है। वहाँ आत्मा के भावों को पहचानने का ही प्रयोजन है, किन्तु उसकी जगह अज्ञानी का लक्ष्य कर्मों पर ही रहता है। निमित्त की मुख्यता से कथन होता है, निमित्त की मुख्यता से कार्य कभी नहीं होता; जैसा काम किया, उसप्रकार में निमित्त परवस्तु का ज्ञान कराने के लिए उसे निमित्त कहा है, पश्चात् छठे दोहे में पं. बनारसीदासजी ने भार देकर कहा है कि अरे ! असहाय वस्तुस्वभाव में निमित्त है कौन ?
जैसे एक आदमी अनेक देशों में घूमता है और अनेकप्रकार के वेश धारण करता है, किन्तु अनेक प्रकार के वेश धारण करने से कहीं वह आदमी बदल नहीं जाता, आदमी तो वह का वही रहता है। इसीप्रकार आत्मा को पहचानने के लिए अनेक प्रकार के निमित्त से कथन किया गया है, किन्तु आत्मा तो एक ही प्रकार का है। मात्र 'आत्मा आत्मा' कहने से आत्मा को नहीं पहचाना जाता, इसलिए उपदेश में भेद से और निमित्त से उसका ज्ञान कराया जाता है। उसका प्रयोजन मात्र आत्मा के भाव को बताना है, इसलिए निमित्त का और निमित्त की अपेक्षा से होनेवाले भेदों का लक्ष्य छोड़कर मात्र अभेद उपादान को लक्ष्य में लेना ही सम्यग्दर्शन और मोक्ष का उपाय है। इसलिए उपादान - निमित्त के स्वाधीन स्वरूप को पहचानकर उपादानस्वभाव की ओर ढलना चाहिए।
'उपादान विधि निर्वचन है निमित्त उपदेश' में - यह बात है कि जिससे द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत् होने से, उपादान के कार्य करने की विधि स्वतः योग्यता - एक ही प्रकार (निर्वचन ) है । प्रत्येक द्रव्य में प्रत्येक समय की स्वतंत्र योग्यता से ही अपनी योग्यतानुसार कार्य होता है,