________________
(१०१)
मूल में भूल
(१००) संयोग की एकत्वबुद्धि दूर नहीं होती और स्व-पर भेदज्ञान नहीं होता।
यहाँ पर उपादान और निमित्त की स्वतंत्रता बतलाकर भेदज्ञान का उपाय बताते हैं। समस्त जगत के बहुत से जीव उपादान-निमित्त के स्वरूप को समझे बिना उसकी खिचड़ी पकाया करते हैं। निमित्त में कोई विशेषता है। कभी-कभी निमित्त का असर होता है, कभी-कभी निमित्त की मुख्यता से कार्य है - इसप्रकार की तमाम मान्यतायें अज्ञानमूलक हैं।
उपादान बल जहँ तहाँ, नहिं निमित्त को दाव।
एक चक्र सौं रथ चलै, रवि को यहै स्वभाव ।।५।। अर्थ :- जहाँ देखो वहाँ सदा उपादान का ही बल है, निमित्त होते हैं; परन्तु निमित्त का कुछ भी (बल) नहीं है। जैसे एक चक्र से सूर्य का रथ चलता है। इसप्रकार प्रत्येक कार्य उपादान की योग्यता (सामर्थ्य) से ही होता है, निमित्त-उपादान में कुछ भी कर्ता नहीं है। ___जहाँ प्रत्येक वस्तु अपने-अपने स्वभाव से ही कार्य करती है, वहाँ उसके स्वभाव में परवस्तु क्या कर सकती है ? कोई वस्तु अन्य वस्तु के भाव में परिणमन नहीं करती। उपादान स्वयं अपने भाव में परिणमन करता है
और निमित्त निमित्त के अपने भाव में परिणमन करता है। अपनी पर्याय का कार्य करने में प्रत्येक वस्तु का उपादान स्वयं ही बलवान है, उसमें निमित्त का कोई कार्य नहीं। इसमें दृष्टान्त भी प्राकृतिक वस्तु का दिया गया । सूर्य के रथ को एक ही चक्र होता है, एक चक्र से ही चलने का सूर्य का स्वभाव है; उसीप्रकार एक स्ववस्तु से ही कार्य करने का वस्तु का स्वभाव है। अपने उपयोग को स्वभाव की ओर बदलने में जीव स्वयं स्वतंत्र है। इसलिए हे निमित्त के पक्षकार ! तुम कहते हो कि निमित्त हो तो कार्य हो और जैसा निमित्त मिलता है, उसी के अनुसार उपादान की पर्याय होती है - यह बात असत्य है। स्वभाव में पर निमित्त का कोई कार्य है ही नहीं। यदि वस्तु की कोई भी पर्याय निमित्त के कारण होती हो
मूल में भून तो क्या उस वस्तु में उस पर्याय के होने की शक्ति नहीं थी। अनादिअनन्त काल की समस्त पर्यायों का सामर्थ्य वस्तु में विद्यमान है और जबकि वस्तु में ही अनादि-अनन्त पर्यायों की शक्ति है, तब उसमें दूसरे ने क्या कर दिया। अनादि-अनन्त पर्यायों में से यदि एक भी पर्याय पर के कारण अथवा पर की मुख्यता से लेकर होती है - यह माना जाये तो कहना होगा कि ऐसा माननेवाले ने वस्तु को ही स्वीकार नहीं किया।
भला निमित्त ने किया कैसे ? क्या वस्तु में वह पर्याय नहीं थी और निमित्त ने बाहर से लाकर उसे दे दिया। जिस वस्तु में जो शक्ति न हो, वह दूसरे से नहीं दी जा सकती और जो शक्ति वस्तु में होती है, उसे दूसरे की सहायता की आवश्यकता नहीं होती । ऐसे स्वतंत्र वस्तुस्वभाव को स्वीकार किए बिना स्वतंत्र दशा (सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र) कदापि प्रकट नहीं होगी।
पहले एक तर्क में कहा था कि क्या आदमी दो पैर के बिना चल सकता है ? हाँ, जिसमें चलने की उसप्रकार की शक्ति होती है, वह एक पैर से भी चल सकता है । ९६ अन्तर्वीप के मनुष्य के एक पैर होता है और वे एक ही पैर से चलते हैं । इसीप्रकार आत्मा के अन्तर स्वभाव की शक्ति से निर्मलदशा प्रकट होती है। निर्मलदशा के प्रकट करने में निमित्त का कोई कार्य नहीं है, इतना ही नहीं, किन्तु निमित्त के प्रति लक्ष्य भी नहीं होता। निमित्त के लक्ष्य को छोड़कर मात्र स्वभाव के लक्ष्य से निर्मलदशा प्रकट होती है।
जड़ के सुख-दुःख नहीं होता । यहाँ तो जीव का प्रयोजन है। जीव में 'उपयोग' है, उसी से वह अकेला अपने उपयोग को स्व की ओर बदल सकता है। निमित्त की ओर से उपयोग को हटाकर स्वभाव की ओर उपयोग को करने के लिए उपयोग स्वयं अपने से ही बदल सकता है। स्वद्रव्य और अनेकप्रकार के परद्रव्य एकसाथ उपस्थित हैं, उनमें अपने उपयोग को स्वयं जिस ओर से ले जाना चाहे, उस ओर ले जा सकता है। परद्रव्यों के होने पर भी उन सबका लक्ष्य छोड़कर उपयोग को स्वद्रव्य की