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मूल मेंभूल
और यदि मिट्टी घड़े के रूप में परिणमित नहीं होती तो कुम्हार निमित्त नहीं कहलाता। मिट्टी के कार्य में कुम्हार कुछ नहीं करता, कुम्हार तो धर्मास्तिकाय की तरह उपस्थित मात्र है। इसप्रकार जहाँ-जहाँ परवस्तु को निमित्त कारण कहा जाता है, वहाँ धर्मास्तिकायवत्' समझना चाहिए। ___ पदार्थ का स्वयं कार्यरूप में परिणमन होना, सो निश्चय है और अन्य पदार्थ में कारणपने का आरोप करके उसे निमित्त कहना, सो व्यवहार है। जहाँ निश्चय होता है, वहाँ व्यवहार होता ही है अर्थात् जहाँ उपादान स्वयं कार्यरूप में परिणमित होता है, वहाँ निमित्तरूप परवस्तु की उपस्थिति अवश्य होती है। उपादान ने अपनी शक्ति से कार्य किया है - ऐसा ज्ञान करना, सो निश्चयनय है और उससमय उपस्थित रहनेवाली परवस्तु का ज्ञान करना सो व्यवहारनय है।
अर्थ :- सम्यग्दर्शन-ज्ञानरूप नेत्र और ज्ञान में चरण अर्थात् लीनतारूप क्रिया - दोनों मिलकर मोक्षमार्ग जानो। उपादानरूप निश्चय कारण जहाँ हो, वहाँ निमित्तरूप व्यवहार कारण होता ही है। निमित्त की राह देखकर रुकना पड़े - ऐसी पराधीनता नहीं है।
१. उपादान यह निश्चय अर्थात् सच्चा कारण है, निमित्त तो मात्र व्यवहार अर्थात् उपचार कारण कहा है, सच्चा कारण नहीं है; इसलिए तो उसे अकारणवत् कहा है और उसे उपचार (आरोप) कारण क्यों कहा कि वह उपादान का कुछ कार्य करते कराते नहीं, तो भी कार्य के समय उनकी उपस्थिति के कारण उसे उपचारमात्र कारण कहा है।
२. सम्यग्ज्ञान और ज्ञान में लीनता को मोक्षमार्ग जानो - ऐसा कहा; उसी में शरीराश्रित उपदेश उपवासादिक क्रिया और शुभरागरूप व्यवहार को मोक्षमार्ग न जानो - यह बात आ जाती है।
प्रथम प्रश्न का समाधान -
मुल में भूल उपादान निजगुण जहाँ, तहाँ निमित्त पर होय ।
भेद ज्ञान परमाण विधि, बिरला बूझे कोय ।।४।। अर्थ :- जहाँ निजशक्तिरूप उपादान तैयार हो, वहाँ पर निमित्त होते ही हैं - ऐसी भेदज्ञान प्रमाण की विधि (व्यवस्था) है। यह सिद्धान्त कोई विरला ही समझता है।
जहाँ उपादान की योग्यता हो, वहाँ नियम से निमित्त होता है, निमित्त की राह देखना पड़े - ऐसा नहीं है और निमित्त को हम जुटा सकते हों ऐसा भी नहीं है। निमित्त की राह देखनी पड़ती है या उसे मैं ला सकता हूँ - ऐसी मान्यता परपदार्थ में अभेदबुद्धि अर्थात् अज्ञान सूचक है। निमित्त और उपादान दोनों असहायरूप हैं तो मर्यादा है।
उपादान अपनी शक्ति से कार्य करता है, तब वहाँ निमित्त होता है; किन्तु वह उपादान में कुछ भी कर नहीं सकता - यह भेद-विज्ञान की बात है। स्व और परद्रव्य भिन्न-भिन्न हैं, एक का दूसरे में नास्तित्व है, तब फिर वह क्या कर सकता है ? यदि खरगोश के सींग किसी पर असर कर सकते हों तो निमित्त का असर भी दूसरे पर हो सकता है, किन्तु जैसे खरगोश के सींग का अभाव होने से उसका किसी पर असर मानना झूठ है, उसीप्रकार निमित्त का पर द्रव्य में अभाव होने से निमित्त का कोई असर पर द्रव्य में मानना मिथ्यात्व है। इसप्रकार वस्तुस्वभाव का भेदज्ञान किसी विरले सत्य पुरुषार्थी जीव के ही होता है। उपादान-निमित्त की स्वतंत्रता को ज्ञानी ही जानते हैं। ज्ञानीजन वस्तुस्वभाव को देखते हैं, इसलिए वे जानते हैं कि प्रत्येक वस्तु की पर्याय उस वस्तु के अपने स्वभाव से होती है। वस्तुस्वभाव में ही अपना कार्य करने की शक्ति है, उसे परवस्तु के निमित्त की आवश्यकता नहीं होती। अज्ञानी वस्तुस्वभाव को नहीं जानते; इसलिए वे संयोग को देखते हैं और वस्तु का कार्य स्वतंत्र नहीं मानकर उसे संयोगाधीन-निमित्ताधीन मानते हैं। इसलिए उनके