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मूल में भूल स्वाधीनता को प्रतीति में ले तो सर्व पर द्रव्यों का मुंह देखना दूर हो जाये और स्वभाव का स्वाधीन आनन्द प्रकट हो।
जब स्व लक्ष्य करके शक्ति की सम्हाल की, तब वह शक्ति प्रकट हुई अर्थात् सुख हुआ। उपादान शक्ति तो त्रिकाल है, वह मुक्ति का कारण नहीं, किन्तु उपादान शक्ति की सम्हाल मुक्ति का कारण है। उपादान शक्ति की सम्हाल ही दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग है। पहले उपादान स्वभाव की श्रद्धा की कि मैं स्वयं अनन्तु गुण शक्ति का पिण्ड हूँ, पर से पृथक् हूँ, मुझे पर से कुछ भी नहीं लेना है, किन्तु मेरे स्वभाव में से ही प्रकट होता है - ऐसी प्रतीति और ज्ञान करके उस स्वभाव में स्थिरता करना - सो उपादान शक्ति की सम्हाल है और वही मोक्ष का कारण है।
उपादान कारण और निमित्त कारण दोनों पर्यायरूप हैं, द्रव्य-गुण त्रैकालिक हैं, उसमें निमित्त नहीं होता। त्रैकालिक शक्ति उपादान है और उस त्रैकालिक शक्ति की वर्तमान पर्याय उपादान कारण है। उपादान कारण अपनी पर्याय में कैसा कार्य करता है और उससमय किसप्रकार का पर संयोग होता है - यह बताने के लिए परवस्तु को निमित्त कारण कहा गया है। पर-वस्तु को निमित्त कहकर उसका ज्ञान कराया है, क्योंकि ज्ञान की शक्ति स्व-पर को जानने की है, परन्तु परद्रव्य का कोई भी बल बताने के लिए उसे निमित्त कहा गया है।
जहाँ यह कहा जाता है कि 'जीव ने ज्ञानावरणी कर्म का बंध किया है', वहाँ वास्तव में यह बताने का आशय है कि जीव ने अपनी पर्याय में ज्ञान की हीनता की है; परन्तु ‘जीव जड़ परमाणुओं का कर्ता हैं' - यह बताने का आशय नहीं है।
प्रश्न : उपादान तो सभी जीवों के त्रिकाल है - यह बात इस दोहे में बताई गयी और इस संवाद में यह भी कहा गया है कि मात्र उपादान की शक्ति से ही कार्य होता है। यदि मात्र उपादान से ही कार्य होता हो तो
मूल में भून अनन्तकाल से उपादान होने पर भी पहले कभी शुद्ध कार्य प्रकट नहीं किया था; किन्तु तब फिर आज ही प्रगट करने का क्या कारण है ?
उत्तर : जो त्रिकाल उपादान है, वह तो द्रव्यरूप है। वह सब जीवों के है, परन्तु कार्य तो पर्याय में होता है। जब जो जीव अपनी उपादान शक्ति को सँभालता है, तब उस जीव के शुद्धता प्रकट हो जाती है। द्रव्य की शक्ति त्रिकाल है, किन्तु जब स्वयं परिणति जागृत की, तब वह शक्ति पर्यायरूप व्यक्त हो गई। जब स्वयं स्वोन्मुखी रुचि और अपनी ओर के भाव के द्वारा अपनी परिणति को जागृत करता है, तब होती है; उसमें कोई कारण नहीं अर्थात् वास्तव में द्रव्य-गुण अकारणीय है, उसीप्रकार शुद्ध अथवा अशुद्ध पर्याय अकारणीय है। शुद्ध अथवा अशुद्ध पर्याय को उससमय में स्वयं स्वत: करता है, उसमें पूर्वापर की दशा अथवा कोई परद्रव्य वास्तविक कारण नहीं है। पर्याय का कारण पर्याय स्वयं ही है, पर्याय अपनी शक्ति से जिस समय जागृत होती है, उससमय जागृत हो सकती है। जिस पर्याय में जितना स्वभाव की ओर का बल होता है (अर्थात् जितने अंश में स्व-समय रूप परिणमन करता है) उस पर्याय में उतनी शुद्धता होती है, कारण-कार्य एक ही समय में अभेद है। यहाँ पर प्रत्येक पर्याय में पुरुषार्थ की स्वतंत्रता बताई गई है। पहली पर्याय के मिथ्यात्व रूप होने पर भी दूसरे समय में स्वरूप की प्रतीति करके सम्यक्त्व रूप पर्याय प्रकट हो सकती है। यहाँ कोई पूछ सकता है कि जो सम्यक्त्व पहली पर्याय में नहीं था, वह दूसरी पर्याय में कहाँ से आयेगा ? इसका उत्तर यह है कि उससमय की पर्याय को स्वतंत्र सामर्थ्य प्रकट होने से सम्यक्त्व हुआ है, पूर्व पर्याय नई पर्याय की कर्ता नहीं है, परन्तु नई प्रकट होनेवाली अवस्था स्वयं ही अपने पुरुषार्थ की योग्यता से सम्यक्त्वरूप हुई है, जिस समय पुरुषार्थ करता है, उस समय सम्यग्दर्शन प्रकट होता है, उसमें कोई कारण नहीं है। पर्याय का पुरुषार्थ स्वयं ही सम्यग्दर्शन का कारण है और वह पर्याय द्रव्य में से प्रकट होती है; इसलिए अभेद विवक्षा