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________________ (८३) मूल मेंभूल से द्रव्य स्वभाव ही सम्यग्दर्शन का कारण है। ___उपादान की महिमा भैया महिमा ब्रह्म की, कैसे वरनी जाय ? वचन अगोचर वस्तु है, कहिवो वचन बताय ।।४३।। अर्थ :- ग्रन्थकार भैया भगवतीदासजी आत्मस्वभाव की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि भाई ! ब्रह्म की (आत्मस्वभाव की) महिमा का वर्णन कैसे किया जा सकता है ? वह वस्तु वचन अगोचर है, उसे किन वचनों के द्वारा बताया जा सकता है? जो जीव वस्तु के स्वतंत्र उपादानस्वभाव को समझता है. उसे उस स्वभाव की महिमा प्रकट हए बिना नहीं रहती। अनादि-अनन्त सम्पूर्ण स्वतंत्रता से वस्तु टिक रही है, ऐसे वस्तुस्वभाव का वचन से कैसे वर्णन किया जा सकता है, वचन से उसकी महिमा का पार नहीं आ सकता। ज्ञान के द्वारा ही उसकी यथार्थ महिमा जानी जा सकती है। स्वभाव की महिमा बहुत है, वह वचन से परे हैफिर भी उसे वचन के द्वारा कहना, सो पूरा कैसे कहा जा सकता है ? इसलिए हे भाई ! तू अपनी ज्ञान सामर्थ्य के द्वारा अपने स्वभाव को समझ । यदि तू स्वयं समझे तो अपने स्वभाव का पार पाये। एक ही समय में अनादि संसार का नाश करके जिसके बल से परम पवित्र परमात्मदशा प्रकट होती है - ऐसे भगवान आत्मा के स्वभाव की महिमा को हम कहाँ तक कहें । हे भव्यजीवो ! तुम स्वयं स्वभाव को समझो। अब ग्रन्थकार इस संवाद की सुन्दरता को बतलाते हैं और यह भी बतलाते हैं कि इस संवाद से ज्ञानी और अज्ञानी को किसप्रकार का अभिप्राय होगा उपादान अरु निमित्त को, सरस बन्यौ संवाद । समदृष्टि को सरल है, मूरख को बकवाद ।।४४।। मुल में भूल अर्थ :- उपादान और निमित्त का यह सुन्दर संवाद बना है। यह सम्यग्दृष्टि के लिए सरल है और मूर्ख (मिथ्यादृष्टि) के लिए बकवाद मालूम होगा। उपादान-निमित्त के सच्चे स्वरूप को बतानेवाला आत्मा के सहज स्वतंत्र स्वभाव का यह वर्णन बहुत ही अच्छा है । जो जीव वस्तु के स्वाधीन स्वरूप को समझते हैं, उन सच्ची दृष्टिवाले जीवों के लिए तो वह सुगम है। वे ऐसी वस्तु की स्वतंत्रता को समझकर आनन्द करेंगे, किन्तु जिसे वस्तु की स्वतंत्रता की प्रतीति नहीं होती और जो आत्मा को पराधीन मानता है, वह वस्तु के स्वतंत्र स्वभाव की महिमा को नहीं जान सकता । ज्ञानी वस्तु को भिन्न-भिन्न और स्वभाव से देखते हैं, किन्तु अज्ञानी संयोगबुद्धि से देखते हैं; इसलिए वह संयोग से कार्य होता है - इसप्रकार मिथ्या मानते हैं, परन्तु इस बात को ज्ञानी ही यथार्थरीत्या जानते हैं कि वस्तु पर से भिन्न असंयोगी है और उसका कार्य भी स्वतंत्र अपनी शक्ति से ही होता है। अज्ञानी को तो ऐसा लगेगा कि भला यह किसकी बात है ? भला, क्या आत्मा को कोई सहायता नहीं कर सकता, किन्तु भाई ! यह बात तेरे ही स्वरूप की है। निज स्वरूप की प्रतीति के बिना अनादि काल से दुःख में परिभ्रमण कर रहा है, तेरा यह परिभ्रमण कैसे दूर हो और सच्चा सुख प्रकट होकर मुक्ति कैसे हो? - यह बताया जाता है। संयोगबुद्धि से परपदार्थों को सहायक मानकर तू अनादि काल से परिभ्रमण कर रहा है। अब तुझे तेरा पर से भिन्न स्वाधीन स्वरूप बतलाकर ज्ञानीजन उस विपरीत मान्यता को छोड़ने का उपदेश देते हैं। ___ ज्ञानीजन तुझे कुछ देते नहीं हैं। तू ही अपना तारनहार है, तेरी असमझ से ही तेरा बिगाड़ है और सच्ची समझ से ही तेरा सुधार है। यदि जीव अपनी इस स्वाधीनता को समझ ले तो उसे अपनी महिमा ज्ञात हो जाये, किन्तु जिसे अपनी स्वाधीनता समझ में नहीं आती, उसे यह संवाद
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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