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मुल में भूल निमित्त दोनों को स्वतंत्रतया जान लिया और अपनी स्वतंत्र शक्ति सम्हालकर स्वयं सिद्धदशा प्रकट कर ली। निमित्त हार गया, इसका मतलब यह है कि अज्ञानदशा में निमित्त की दृष्टि थी। ज्ञानदशा के प्रकट होने पर अज्ञान का नाश हो गया और निमित्तदृष्टि दूर हो गई. इसलिए यह कहा गया है कि निमित्त हार गया।
इसप्रकार निमित्ताधीनदृष्टि का नाश होने पर उपादान को अपने में क्या लाभ हुआ? यह बतलाते हैं -
उपादान जीत्यो तहाँ, निजबल कर परकाश ।
सुख अनन्त ध्रुव भोगवे, अन्त नवरन्यो तास ।।४१।। अर्थ :- इसप्रकार निज का बल प्रकाश कर उपादान जीता। (वह उपादान अब) उस अनन्त ध्रुव सुख को भोगता है, जिसका अंत नहीं है।
आत्मा का स्वभाव शुद्ध ध्रुव अविनाशी है। उस स्वभाव के बल से उपादान ने अपने केवलज्ञान का प्रकाश किया है और अब वह स्वाधीनता से अनन्त ध्रुव सुख को भोग रहा है। पहले निमित्ताधीन दृष्टि से पराधीनता के कारण (पर लक्ष्य करके) दुःख भोग रहा था और अब स्वभाव को पहचानकर उपादानदृष्टि से स्वाधीनतया शद्धदशा में अनन्तकाल के लिए सुखानुभव कर रहा है। सिद्धदशा होने के बाद समय-समय पर स्वभाव में से ही आनन्द का भोग किया करता है। अपने सुख के लिए जीव को शरीर, पैसा इत्यादि परद्रव्य की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि उन किसी के न होने पर भी सिद्ध भगवान स्वाधीनतया सम्पूर्ण सुखी हैं। __देखिये, यहाँ कहा है कि उपादान ने अपने बल का प्रकाश करके सुख प्राप्त किया है। अपने में जो शक्ति थी, उसे पहचानकर उसके द्वारा उस बल को प्रकट करके ही सुख प्राप्त हुआ है। किसी निमित्त की सहायता से सुख प्राप्त नहीं किया।
अब तत्त्व स्वरूप को कहते हैं, उसमें बड़ा सुन्दर न्याय है -
मूल में भूल उपादान अरु निमित्त ये, सब जीवन पै वीर।
जो निजशक्ति सँभार ही, सो पहुँचे भव तीर ।।४२। अर्थ :- उपादान और निमित्त - ये सभी जीवों के हैं, किन्तु जो वीर अपनी उपादान शक्ति की सम्हाल करते हैं, वे भव के पार को प्राप्त होते हैं।
सभी जीव भगवान हैं और अनन्त गुणवाले हैं। सभी आत्माओं की उपादान शक्ति समान है और सभी जीवों के बाह्य निमित्त भी हैं। इसप्रकार उपादान और निमित्त दोनों त्रिकाल सभी जीवों के हैं। ऐसा कोई आत्मा नहीं है, जिसमें उपादान शक्ति की पूर्णता न हो तथा ऐसा कोई आत्मा नहीं है कि जिसको निमित्त न हो। जैसा कार्य जीव स्वयं करता है, उससमय उसे अनुकूल निमित्त होता ही है। निमित्त होता अवश्य है, किन्तु उपादान के कार्य में कुछ करता नहीं है। उपादान और निमित्त दोनों अनादि-अनन्त हैं। जो अपने उपादान की जागृति करके धर्म समझते हैं उनके सत् निमित्त होता है और जो जीव धर्म को नहीं समझते, उनके कर्म वगैरह निमित्त कहलाते हैं। सिद्धों के परिणमन इत्यादि में काल, आकाश आदि का निमित्त है और ज्ञान में ज्ञेय के रूप में सारा जगत निमित्त है। किसी भी जगह अकेला उपादान नहीं होता; क्येंकि ज्ञान स्व-पर को जानने की शक्तिवाला है, इसलिए वह उपादान और निमित्त दोनों को जानता है। यदि उपादान और निमित्त दोनों को न जाने तो ज्ञान असत् कहलायेगा, तथापि ध्यान रहे कि उपादान और निमित्त दोनों स्वतंत्र पदार्थ हैं । वे एकदूसरे का कुछ नहीं कर सकते। उपादान और निमित्त दोनों वस्तुएँ अपने अस्तित्व में हैं। जो जीव अपनी उपादान शक्ति को सम्हालता है उसी को सम्यग्दर्शनादि गुण प्रकट होकर मोक्ष होता है, किन्तु जो जीव उपादान को भूलकर निमित्त की ओर लक्ष्य करता है, वह अपनी शक्ति को भूलकर पर से भीख माँगनेवाला चौरासी का भिखारी है। पर लक्ष्य से वह भिखारीपन दूर नहीं होता और जीव सुखी नहीं हो सकता। यदि अपने स्वभाव की