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मूल में भूल फिर जो जीव अपने उपादान की जागृति करके जितना समझते हैं, उन जीवों के उतना ही निमित्त कहलाता है। कोई बारह अंग का ज्ञान करता है तो उसके बारह अंगों के लिए भगवान की वाणी का निमित्त कहलाता है
और कोई किंचित्मात्र भी नहीं समझता तो उसके लिए किंचित् भी निमित्त नहीं कहलाता । कोई उलटा समझता है तो उसकी उलटी समझ में निमित्त कहलाता है। इससे सिद्ध होता कि उपादान स्वाधीन रूप में ही कार्य करता है, निमित्त तो मात्र आरोपरूप ही है। भगवान के पास सच्चे गुरु के पास अनन्त बार गया, किन्तु स्वयं जागृत होकर अपने भीतर से भूल को दूर करे तभी तो आत्मा को समझेगा ? कोई देव-शास्त्र-गुरु उसके आत्मा में प्रवेश करके भूल को बाहर तो नहीं निकाल देंगे। ___ जैसे सिद्ध भगवान के ज्ञान के परिणमन में लोकालोक निमित्त है, किन्तु क्या सिद्ध भगवान का ज्ञान लोकालोक के किसी पदार्थ परिणमन कराते हैं अथवा उनका कोई असर भगवान पर होता है, ऐसा तो कुछ नहीं होता। इसप्रकार सिद्ध भगवान के ज्ञान की तरह सर्वत्र समझ लेना चाहिए कि निमित्तमात्र उपस्थितिरूप है, वह किसी को परिणमन नहीं कराता अथवा उपादान पर उसका किंचित्मात्र भी असर नहीं होता; इसलिए उपादान की ही विजय है। प्रत्येक जीव अपने-अपने अकेले स्वभाव के आवलम्बन से ही धर्म को पाते हैं, कोई भी जीव परावलम्बन से धर्म को प्राप्त नहीं करता।
(यहाँ पर यही प्रयोजन है कि जीव की मुक्ति हो, इसलिए मुख्यतया जीव के धर्म पर ही उपादान निमित्त के स्वरूप को घटित किया है; परन्तु तदनुसार ही जीव अपना अधर्मभाव ही अपनी उपादान की योग्यता से करता है और जगत की समस्त जड वस्तओं की क्रिया भी उन-उन जड वस्तुओं के उपादान से होती है। शरीर का हलन-चलन, शब्दों का बोला या लिखा जाना - यह सब परमाणु के ही उपादान से होता है, वहाँ
मूल में भून निमित्त होने पर भी निमित्त उसमें कुछ नहीं करता - इसीप्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिए।)
पराजय की स्वीकृति अब यहाँ पर सब बातों को स्वीकार करके निमित्त अपनी पराजय स्वीकार करता है
तब निमित्त हार्यो तहाँ, अब नहिं जोर बसाय ।
उपादान शिव लोक में, पहुँच्यो कर्म खपाय ।।४०।। अर्थ :- तब निमित्त हार गया। अब कुछ जोर नहीं करता और उपादान कर्म का क्षय करके शिवलोक में (सिद्धपद में) पहुँच गया।
उपादान-निमित्त के संवाद से अनेकप्रकार आत्मा के स्वतंत्रता के स्वरूप की प्रतीति करके उपादान पक्षवाला जीव अपनी सहज शक्ति को प्रकट करके मुक्ति में अकेला शुद्ध संयोग रहित शुद्धरूप में रह गया। जो अपने स्वभाव से शुद्ध रहा, उसने अपने में से ही शुद्धता प्राप्त की है; किन्तु जो राग-विकल्प इत्यादि छट गये हैं और उसमें से शुद्धता को प्राप्त नहीं किया । कर्म का और विकार भाव आदि का नाश करके तथा मनुष्य देह, पाँच इन्द्रियाँ और देव, शास्त्र, गुरु इत्यादि सबका संग छोड़कर उपादान स्वरूप की एकाग्रता के बल से जीव ने अपनी शुद्धदशा को प्राप्त कर लिया।
प्रश्न : इस दोहे में लिखा है कि “अब नहिं जोर बसाय' अर्थात् जीव सिद्ध होने के बाद निमित्त का कुछ वश नहीं चलता, किन्तु जीव की विकारदशा में तो निमित्त का जोर चलता है न ? ___उत्तर : नहीं, निमित्त तो परवस्तु है। आत्मा के ऊपर पर वस्तु का जोर कदापि चल ही नहीं सकता, किन्तु जीव पहले अज्ञानदशा में निमित्त का बल मान रहा था और अब यथार्थ प्रतीति होने पर उसने उपादान