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________________ मूल मेंभूल (७४) छोड़ता है, तभी मोक्ष होता है। सम्यग्दर्शन के बाद ध्यान का विकल्प उठता है, उसे छोड़कर मुक्ति होती है। उस विकल्प को रखकर कभी भी मक्ति नहीं हो सकती। ध्यान की धारणा को छोड़कर अर्थात् स्वभाव में स्थिर होऊँ - ऐसा जो विकल्प उठता है; उसे छोड़कर अभेद स्वरूप में स्थिर होने पर केवलज्ञान और मोक्ष होता है। इसलिए मात्र उपादान के बल से ही कार्य होता है, निमित्त से कार्य नहीं होता । यहाँ पर उपादान को निश्चय और निमित्त को व्यवहार के रूप में लिया है। स्वभाव में एकाग्रतारूप अभेद परिणति निश्चय है; वही उपादान है, वही मोक्ष का कारण है और जो भेदरूप विकल्प उठता है, वह व्यवहार है, निमित्त है; वह मोक्ष का कारण नहीं है। ध्यान की धारणा को छोड़ने से केवलज्ञान होता है तथा केवलज्ञान होने के बाद भी मन, वचन, काय के योग का जो कंपन होता है, वह भी मोक्ष का कारण नहीं है। उस योग की क्रिया को तोड़-मरोड़कर मोक्ष होता है। ___मन, वचन, काया के विकल्प को तोड़-मरोड़कर स्वरूप के भीतर पुरुषार्थ करके राग से छूट कर अभेदस्वरूप में स्थिर होने पर केवलज्ञान और अन्त में मुक्ति होती है। उपादान ने स्वभाव की ओर से तर्क उपस्थित करके निमित्त के पराधीनता के तर्क को खण्डित कर दिया है। इसप्रकार ३९ दोहों तक उपादान और निमित्त ने परस्पर तर्क उपस्थित किये। उन दोनों के तर्कों को बराबर समझकर सम्यग्ज्ञानरूपी न्यायाधीश अपना निर्णय देता है कि उपादान आत्मा की ओर से स्वाश्रित बात करनेवाला है और निमित्त आत्मा को पराश्रित बतलाता है। इनमें से आत्मा को और प्रत्येक वस्तु को स्वाधीनता बतानेवाले उपादान की बात बिलकुल सच है और आत्मा को तथा प्रत्येक वस्तु को पराधीन बतानेवाले निमित्त की बात बिलकुल गलत है। इसलिए निमित्त को पराजित घोषित किया जाता है। (७५) मूल में भूल निमित्त पक्षवाले की ओर से अन्तिम अपील की जाती है कि निमित्त की बात गलत क्यों है और निमित्त कैसे पराजित हो गया ? देखिये, जब लोग धर्मसभा में एकत्रित होकर सत्समागम प्राप्त करते हैं, तब उनके अच्छे भाव होते हैं और जब वे घर पर होते हैं तो ऐसे अच्छे भाव नहीं होते। अच्छा निमित्त मिलने से अच्छे भाव होते हैं और जब वे घर पर होते हैं तो ऐसे अच्छे भाव नहीं होते। अच्छा निमित्त मिलने से अच्छे भाव होते हैं, इसलिए निमित्त का कुछ बल तो स्वीकार करना ही चाहिए। उपादान इस अपील का खण्डन करता हआ कहता है कि स्वत: बदलने से अपने भाव बदलते हैं, निमित्त को लेकर किसी के भाव नहीं बदलते। उपादान के कार्य में निमित्त का अंशमात्र भी बल नहीं है। उपादान के कार्य में तो निमित्त की नास्ति है। बाहर ही वह लोटता रहता है किन्तु वह उपादान में प्रवेश नहीं कर सकता और वह दूर से भी कोई असर, मदद और प्रेरणा नहीं कर सकता। यदि कोई यह कहे कि - "निमित्त-उपादान का कुछ भी नहीं करता, परन्तु जैसा निमित्त होता है, तदनुसार उपादान स्वयं परिणमन करता है" तो यह बात भी बिलकुल गलत और वस्तु को पराधीन बतानेवाली है। निमित्तानुसार उपादान परिणमन नहीं करता, किन्तु उपादान स्वयं अपनी शक्ति से स्वाधीनतया परिणमन करता है, योग्यतानुसार कार्य करता है। सत्समागम के निमित्त का संयोग हुआ, इसलिए आपके भाव सुधर गये यह बात नहीं है। सत्समागम का निमित्त होने पर भी किसी जीव को अपने भाव में सच्ची बात नहीं बैठती और उलटा वह सत् का विरोध करके दुर्गति में जाता है; क्योंकि उपादान के भाव स्वतंत्र हैं। सत् निमित्त की संगति होने पर भी यदि उपादान स्वयं जागृति न करे तो सत्य को नहीं समझा जा सकता और जो सत्य को समझते हैं, वे सब अपने उपादान की जागृति करके ही समझते हैं। श्री भगवान के समवशरण में करोडों जीव भगवान की वाणी सुनते हैं, वहाँ पर वाणी सबके लिए एक-सी होती है।
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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