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उपादान तुम जोर हो तो क्यों लेत आहार । पर निमित्त के योग सों जीवत सब संसार ।।२४।। जो अहार के जोग सों जीवत है जगमांहि । तो वासी संसार के मरते कोऊ नांहि ।।२५।। सूर सोम मणि अग्नि के निमित्त लखें ये नैन । अंधकार में कित गयो उपादान दृग दैन ।।२६।। सूर सोम मणि अग्नि जो, करे अनेक प्रकाश। नैन शक्ति बिन ना लखें अंधकार सम भास ।।२७।। कहै निमित्त वे जीव को मो बिन जग के मांहि । सबै हमारे वश पर हम बिन मुक्ति न जाहिं ।।२८।। उपादान कहै रे निमित्त ! जैसे बोल न बोल। तोको तज निज भजत हैं ते ही करें किलोल ।।२९।। कहै निमित्त हमको तर्जे, ते कैसे शिव जात । पंच महाव्रत प्रगट है और हु क्रिया विख्यात ।।३०।। पंच महाव्रत जोग त्रय और सकल व्यवहार । पर कौ निमित्त खपाय के तब पहुँचे भवपार ।।३१।। कहै निमित्त जग में वड्यो मोतें बड़ो न कोय । तीनलोक के नाथ सब मो प्रसाद तें होय ।।३२।। उपादान कहै तू कहा चहुंगति में ले जाय । तो प्रसाद तें जीव सब दुःखी होहिं रे भाय ।।३३।। कहै निमित्त जो दुःख सहै सो तुम हमहि लगाय, सुखी कौन से होत है ताको देहु बताय ।।३४।। जो सुख को तू सुख कहै सो सुख तो सुख नांहि । ये सुख दुःख के भूल हैं सुख अविनाशी मांहि ।।३५।।
(vii)
अविनाशी घट घट वसे सुख क्यों बिलसत नाहि। शुभ निमित्त के योग बिन परे परे बिललाहिं ।।३६।। शुभ निमित्त इह जीव को मिल्यो कई भवसार । पै इक सम्यक्दर्श बिन भटकत फिर्यो गंवार ।।३७।। सम्यक्दर्श भये कहा त्वरित मुक्ति में जांहि ? आगे ध्यान निमित्त है ते शिव को पहुँचाहिं।।३८।। छोर ध्यान की धारणा मोर योग की रीत । तोरि कर्म के जाल को जोर लई शिव प्रीत ।।३९।। तब निमित्त हार्यों तहां अब नहिं जोर बसाय । उपादान शिव लोक में पहुंच्यौ कर्म खपाय ।।४०॥ उपादान जीत्यो तहां निजबल कर परकाश । सुख अनंत ध्रुव भोगवे अंत न वरन्यो तास ।।४१।। उपादान अरु निमित्त ये सब जीवन पै वीर । जो निजशक्ति संभार ही सो पहुँचे भव तीर ।।४।। भैया महिमा ब्रह्म की कैसे वरनी जाय ? वचन अगोचर वस्तु है कहिवो वचन बताय ॥४३।। उपादान अरु निमित्त को सरस बन्यौ संवाद । समदृष्टि को सरल है मूरख को बकवाद ।।४४।। जो जानै गुण ब्रह्म के सो जानै यह भेद । साख जिनागम सो मिले तो मत कीज्यो खेद ।।४५।। नगर आगरा अग्र है जैनी जन को वास, तिह थानक रचना करी 'भैया' स्वमतिप्रकाश ।।४६।। संवत् विक्रम भूप को सत्तरहसैं पंचास । फाल्गुन पहले पक्ष में दशों दिशा परकाश ।।४७।।
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