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________________ भैया भगवतीदासजी कृत उपादान-निमित्त संवाद पाद प्रणमि जिनदेव के, एक उक्ति उपजाय । उपादान अरु निमित्त को, कहँ संवाद बनाय ।।१।। पूछत है कोऊ तहां उपादान किह नाम । कहो निमित्त कहिये कहा कब के है इहठाम ।।२।। उपादान निज शक्ति है जिय को मूल स्वभाव। है निमित्त परयोग तैं बन्यो अनादि बनाव ।।३।। निमित्त कहै मौकों सबै, जानत है जगलोय । तेरे नाव न जान ही, उपादान को होय ।।४।। उपादान कहैं रे निमित्त, तू कहा करै गुमान। मौकों जाने जीव वे जो हैं सम्यक्वान ।।५।। कहैं जीव सब जगत के, जो निमित्त सोई होय। उपादान की बात को, पूछे नाहीं कोय ।।६।। उपादान बिन निमित्त तू कर न सकै इक काज। कहा भयो जग ना लखै जानत है जिनराज ।।७।। देव जिनेश्वर गुरु यती अरु जिन आगमसार । इह निमित्त से जीव सब पावत हैं भवपार ।।८।। यह निमित्त इह जीव के मिल्यो अनंतीबार । उपादान पलट्यो नहीं तो भटक्यो संसार ।।९।। कै केवलि कै साधु के निकट भव्य जो होय । सो क्षायक सम्यक् लहै यह निमित्त बल जोय ।।१०।। केवलि अरु मुनिराज के पास रहें बहु लोय । पैजाको सुलट्यो धनी क्षायिक ताकों होय ।।११।। हिंसादिक पापन किये जीव नर्क में जाहिं। जो निमित्त नहिं काम को तो इम काहे कहाहिं ।।१२।। हिंसा में उपयोग जहाँ, रहे ब्रह्म के राच । तेई नर्क में जात हैं, मुनि नहिं जाहिं कदाच ।।१३।। दया दान पूजा किये जीव सुखी जग होय । जो निमित्त झूठी कह्यो यह क्यों माने लोय ॥१४॥ दया दान पूजा भली जगत माहिं सुख कार।। जहं अनुभव को आचरण तहं यह बंधविचार ।।१५।। यह तो बात प्रसिद्ध है सोच देख उर मांहि । नरदेही के निमित्त बिन जिय त्यों मुक्ति न जाहिं।।१६।। देह पीजरा जीव को रोकै शिवपुर जात । उपादान की शक्ति सों मुक्ति होत रे भ्रात ।।१७।। उपादान सब जीव पै रोकन हारौ कौन । जाते क्यों नहिं मुक्ति में बिन निमित्त के हौंन ।।१८।। उपादान सु अनादि को उलट रह्यौ जगमाहिं। सुलटत ही सूधे चलें सिद्धलोक को जांहि ।।१९।। कहूं अनादि बिन निमित्त ही उलट रह्यौ उपयोग। जैसी बात न संभवै उपादान तुम जोग ।।२०।। उपादान कहे रे निमित्त हम पै कही न जाय । जैसे ही जिन केवली देखे त्रिभुवन राय ।।२१।। जो देख्यो भगवान ने सो ही सांचो आहि। हम तुम संग अनादि के बली कहोगे कांहि ।।२२।। उपादान कहे वह बली जाको नाश न होय। जो उपजत विनशत रहे बली कहां ते सोय ।।२३।। (v) (vi)
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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