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________________ मूल में भूल मिले, परन्तु एक सम्यग्दर्शन के बिना यह मूर्ख जीव (अज्ञानभाव से) भटक रहा है। इस दोहे में निमित्ताधीन दृष्टिवाले जीव को गँवार कहा है। जिस जीव के सम्यग्दर्शन नहीं है, वह गँवार है- अज्ञानी है। यह परम सत्य भाषा है। श्री सर्वज्ञ भगवान के पक्ष से और स्वभाव की साक्षी से अनन्त सम्यग्ज्ञानी कहते हैं कि हे भाई! जीव को सम्यग्दर्शन के बिना सुख नहीं होता। स्वयं ही अपने सारे स्वभाव को भूल गया और पर के साथ सुखदुःख का संबंध मान लिया; इसीलिए जीव परिभ्रमण करता है और दुःखी होता है। इस अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हुए जीव को अच्छे-उत्कृष्ट निमित्त मिले, साक्षात् श्री तीर्थंकर भगवान उनका समवशरण (जिसमें इन्द्र, चक्रवर्ती, गणधर और सन्त मुनियों के झुण्ड के झुण्ड आते थे - ऐसी धर्म सभा) तथा दिव्यध्वनि का, जिसमें उत्कृष्ट उपदेशों की मूसलधार वर्षा होती थी - ऐसे सर्वोत्कृष्ट निमित्तों के पास अनन्त बार जाकर बैठा और भगवान की दिव्यवाणी को सुना, तथापि तू अंतरंग की रुचि के अभाव से (निमित्तों के होने पर भी) धर्म को नहीं समझा। तूने उपादान की जागृति नहीं की, इसलिए सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ। हे भाई! जहाँ वस्तुस्वभाव ही स्वतंत्र है, तब फिर उसमें निमित्त क्या करेगा ? यदि जीव स्वयं अपने स्वभाव की पहचान करे तो कोई निमित्त उसे रोकने के लिए समर्थ नहीं है और यदि जीव अपने स्वभाव को न पहचाने तो कोई निमित्त उसे पहचान करा देने के लिए समर्थ नहीं है। अनन्त काल से संसार में परिभ्रमण करते-करते प्रत्येक जीव बड़ा राजा हुआ और समवशरण में विराजमान साक्षात् चैतन्यदेव श्री अरहन्त भगवान को हीरा माणिक के थाल में कल्पवृक्षों के फल-फूलों से पूजा करते इन्द्रों को देखा और स्वयं भी साक्षात् भगवान की पूजा की; हुए किन्तु ज्ञानस्वभावी रागरहित अपने निरालम्बन आत्मस्वरूप को नहीं मूल में भूल समझा, इसलिए सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं हुआ। इसीलिए गँवार होकर अज्ञान भाव से अनन्त संसार में परिभ्रमण करता रहा। भगवान भिन्न और मैं भिन्न हूँ। अपने स्वरूप से मैं भी भगवान ही हूँ ऐसी यथार्थ पहचान के बिना भगवान की पूजा करने से धर्म का लाभ नहीं होता। कहीं भगवान किसी को सम्यग्दर्शन नहीं दे देते। धर्म किसी के आशीर्वाद से नहीं मिलता, मात्र अपनी पहचान से ही धर्म होता है। इसके अतिरिक्त अन्य किसी उपाय से धर्म का आरम्भ नहीं होता । मैं आत्मा स्वतंत्र भगवान हूँ, कोई परवस्तु मेरा कल्याण नहीं कर सकती। अपनी पहचान के द्वारा मैं ही अपना कल्याण करता हूँ। इसे समझे बिना जैन का द्रव्यलिंगी साधु हुआ, क्षमा धारण की, भगवान के पास गया, शास्त्रों को पढ़ा तथा आत्मा की रुचि और प्रतीति किए बिना अनन्त दु:खी होकर संसार में परिभ्रमण किया। यदि उपादान स्वरूप आत्मा की प्रतीति स्वयं न करे तो निमित्त क्या कर सकते हैं ? जैन का द्रव्यलिंग और भगवान तो निमित्त हैं और वास्तव में क्षमा का शुभराग तथा शास्त्र का ज्ञान भी निमित्त है। ये सब निमित्त होने पर भी अपनी भूल के कारण ही जीव को सुख नहीं होता। एक मात्र सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त जीव को सुखी करने में कोई समर्थ नहीं है। यदि निमित्त जीव को सुखी न करता हो और उपादान से ही सुख प्रकट होता हो तो समस्त जीवों के स्वभाव में अविनाशी सुख भरा ही है, उसे वे क्यों नहीं भोगते ? इसप्रकार निमित्त का प्रश्न है, उसके उत्तर में कहते हैं - भाई ! यह सच है कि सब जीवों के स्वभाव में अविनाशी सुख हैं, किन्तु वह शक्तिरूप है और शक्ति का उपभोग नहीं होता; किन्तु जो जीव अपनी शक्ति की सम्हाल करते हैं, वे ही उसको भोगते हैं। यदि निमित्त से सुख प्रकट होता हो तो निमित्त तो बहुत जीवों के होता है, तथापि उन सबके
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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