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मूल में भूल होता है, इसलिए हे निमित्त! उपादान की जागृति से जीव को सुख होता है, जीव के सुख होने में निमित्तों की कोई भी सहायता नहीं होती। जैसे जहाँ चक्रवर्ती होता है, वहाँ चपरासी भी हाजिर ही रहते हैं, किन्तु उस पुरुष का चक्रवर्तित्व कहीं चपरासी के कारण नहीं है; इसीप्रकार जीव जब अपनी जागृति से सम्यग्दर्शनादि प्रकट करके सुखी होता है, तब निमित्त स्वयं उपस्थित होते हैं। परन्तु वे जीव के सुख के कर्ता नहीं हैं । जीव स्वयं यदि सच्ची समझ न करे तो कोई भी निमित्त उसे सुखी करने में समर्थ नहीं
मुल में भूल सुख क्यों प्रकट नहीं होता। ____ अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक भवों में इस जीव को शुभ निमित्त मिले, परन्तु एक पवित्र सम्यग्दर्शन के बिना जीव अपने गँवारपन से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। जिसे अपने स्वाधीन स्वभाव की पहचान नहीं है और जो यह मानता है कि मेरा सुख मुझे देव-शास्त्र-गुरु अथवा शुभराग इत्यादि पर निमित्त दे देंगे, उसे यहाँ पर ग्रन्थकार ने गँवार-मूर्ख कहा है। रे गँवार! तू स्वभाव को भूलकर निमित्ताधीनदृष्टि से ही परिभ्रमण करता रहा है। अपने ही दोष से तूने परिभ्रमण किया है, तू यह मानता ही नहीं कि तू स्वयं में स्वतंत्र है, इसलिए तुझे सुख का अनुभव नहीं होता। कर्मों ने तेरे सुख को नहीं दबा रखा है, इसलिए तू अपनी मान्यता को बदल दे।
निमित्ताधीन दृष्टिवाले को यहाँ गँवार कहा है। इसमें द्वेष नहीं, किन्तु करुणा है। अवस्था की भूल बताने के लिए गँवार कहा। साथ ही यह समझाया है कि भाई ! तेरा गँवारपन तेरी अवस्था की भूल से है। स्वभाव से तो तू भगवान है, इसीलिए अपने स्वभाव की पहचान के द्वारा तू अपनी पर्याय के गंवारपन को दूर कर दे। जो अपनी भूल को ही स्वीकार नहीं करते और निमित्तों का ही दोष निकाला करते हैं वे अपनी भूल को दूर करने का प्रयत्न नहीं करते और इसीलिए उनका गँवारपन दूर नहीं होता । सम्यग्दर्शन के बिना मिथ्यादृष्टि होने से पागल जैसा होकर स्वभाव को भूल गया और निमित्तों की श्रद्धा की, परन्तु स्वोन्मुख होकर अपनी श्रद्धा नहीं की; इसीलिए अनन्त संसार में भव धारण करके दुःख भोग रहा है। अमुक निमित्त हो तो ऐसा हो - इसप्रकार पराधीनदृष्टि ही रखी, इसलिए सुख नहीं हुआ 'परन्तु मैं स्वतंत्र हूँ, अपने में अपने उपादान से मैं जो कुछ करूँ वह हो; मुझे रोकने में कोई समर्थ नहीं - इसप्रकार उपादान की सच्ची समझ से पराधीनदृष्टि का नाश करते ही जीव को अपने सुख का विलास
सच्चा निमित्त मिले बिना सम्यग्ज्ञान नहीं होता अर्थात् जीव जब स्वयं ज्ञान करता है, तब सच्चे निमित्तों की उपस्थिति होती है। यदि स्वयं न समझे और ज्ञान प्रकट न करे तो सत्समागम इत्यादि के संयोग को किसी भी प्रकार निमित्त भी नहीं मान सकते । अर्थात् जीव सम्यग्ज्ञान प्रकट न करे तो निमित्त किसका ? इसलिए कभी भी कोई कार्य निमित्त से नहीं होता। सभी कार्य सदा उपादान से ही होते हैं, इसलिए सुख भी उपादान की जागृति के द्वारा सम्यग्दर्शन से ही होता है।
इसप्रकार सुख जीव के सम्यग्दर्शन से ही प्रकट हो सकता है। ऐसी उपादान की बात को पात्र जीवों ने समझकर स्वीकार किया और निमित्त की हार हुई । जिज्ञासु पात्र जीव उपादान-निमित्त के संवाद से एक के बाद दूसरी बात का निर्णय करता आता है और निर्णय पूर्वक स्वीकार करता है। इसप्रकार यहाँ तक तो निमित्त की हार हुई। अब कुछ समय बाद निमित्त हार जायेगा और वह स्वयं अपनी हार को स्वीकार कर लेगा। ___ सम्यग्दर्शन तक तो बात यह है कि सम्यग्दर्शन से ही जीव को सुख होता है और सच्चे निमित्तों के उपस्थित होने पर भी सम्यग्दर्शन न होने के कारण ही जीव को दु:ख है, सम्यग्दर्शन की बात को स्वीकार कराने के बाद अब सम्यक्चारित्र संबंधी निमित्त की ओर का तर्क यह है -