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मूल में भूल यह सब पार करने के बाद मरने के समय शांतिपूर्वक धर्म होता है, इससप्रकार की महा पराधीन दृष्टि से दुःखरूप संसार है। स्वाधीनता की दृष्टि से सत्समागम प्राप्त करके अंतरंग में धर्म समझने का उपाय न करे तो उसे धर्म प्राप्त नहीं होगा और मुक्ति का उपाय नहीं मिलेगा, वह संसार में परिभ्रमण करता रहेगा। सत् को समझने के अपूर्व सुयोग के समय जोसमझने से इन्कार करता है वह अपने स्वभाव का अनादर करके संयोग बुद्धि से असत् का आदर करके अनन्त संसार में दुःखी होता हुआ परिभ्रमण करता है और जिसने अन्तरंग से समझने का उल्लास प्रगट करके स्वभाव का सत्कार किया वह उपादान के बल से अल्प काल में संसार से मुक्त होकर परम सुख प्राप्त करेगा।
स्वाधीनता समझने में सुख का उपाय है तू अपनी अवस्था में भूल करता है वह भूल तुझे कोई दूसरा नहीं कराता परन्तु तूने अपने को भूलकर 'मुझे पर से सुख-दुःख होता है' इसप्रकार की विपरीत मान्यता कर रखी है। इसीलिए दुःख है। तू ही भूल को करनेवाला है और तू ही भूल को मिटाने वाला है। स्वभाव को भूलकर तूने जो भूल की है उस भूल को स्वभाव की पहिचान करके दूर कर दे तो सुख तो तेरे अविनाशी स्वरूप में भरा हुआ है, वह तुझे प्रगट हो जायेगा? इसप्रकार उपादान स्वाधीनता से कार्य करता
मुल में भूल हे उपादान ! तू कहता है कि निमित्त से सुख नहीं मिलता और अविनाशी उपादान से ही सुख मिलता है तो सभी आत्माओं के स्वभाव में अविनाशी सुख तो है ही, तथापि वे सब उसे क्यों नहीं प्राप्त कर पाते ? क्या यह सच नहीं है कि उन्हें योग्य निमित्त प्राप्त नहीं है। यदि आत्मा में ही अविनाशी सुख भरा हो तो सब जीव उसे क्यों नहीं भोगते ? और जीव बाह्य सुख में क्यों झींकता रहता है ? उपादान तो सबको प्राप्त है। किन्तु अनुकूल निमित्त मिलने पर ही जीव सुखी होता है। इसप्रकार निमित्त की ओर से अज्ञानियों को प्रश्न अनादि काल से चले आ रहे हैं और उपादान की पहचान के बल से उन प्रश्नों को उड़ा देनेवाले ज्ञानी भी अनादिकाल से हैं।
जिस आत्मा को स्वाधीन सुखस्वभाव की खबर नहीं है, वह इसप्रकार शंका करता है कि यदि सुख आत्मा में ही हो तो ऐसा कौन जीव है, जिसे सुख भोगने की भावना नहीं होगी और तब फिर वह सुख को क्यों नहीं भोगेगा ? इसलिए सुख के लिए अनुकूल निमित्त आवश्यक है और निमित्त के आधार पर ही आत्मा का सुख है। मानव देह, आठ वर्ष का काल, अच्छा क्षेत्र, नीरोग शरीर और सत् श्रवण करनेवाला पुरुष का सत्समागम ये सब योग हो तो जीव धर्म को प्राप्त कर सुखी होता किन्तु जीव को अच्छे निमित्त नहीं मिले इसलिए सुख प्राप्त नहीं हुआ और निमित्त के अभाव में जीव एक के बाद एक दुःख भोगता रहता है, इसलिए सुख पाने
लिए जीव को निमित्त की सहायता आवश्यक है। इसप्रकार यह निमित्त का तर्क है।
उपादान का उत्तर - शुभ निमित्त इह जीव को, मिल्यो कई भवसार ।
पै इक सम्यग्दर्श बिन, भटकत फिर्यो गँवार ।।३७ ।। अर्थ :- उपादान कहता है - शुभ निमित्त इस जीव को कई भवों में
निमित्त का तर्क -
अविनाशी घट घट बसे, सुख क्यों विलसत नाहिं।
शुभ निमित्त के योग बिन, परे परे बिललाहिं ।।३६।। अर्थ :- निमित्त कहता है कि अविनाशी सुख तो घट-घट में प्रत्येक जीव में विद्यमान है, तब फिर जीवों को सुख का विलास सुख का भोग क्यों नहीं होता है ? शुभ निमित्त के योग के बिना जीव क्षण-क्षण में दु:खी हो रहा है।