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________________ मूल में भूल स्वभाव की ओर का जो भाव है सो सुख का मूल है और निमित्त की ओर का जो भाव है सो दुःख का मूल है। उच्च से उच्च पुण्य परिणाम भी नाशवान है इसलिए पुण्य सुखरूप नहीं है आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र ही सुखरूप हैं। श्री प्रवचनसार में स्वर्ग के सुख को गरम खौलते हुए घी के समान कहा है। जैसे घी अपने स्वभाव से तो शीतलता करनेवाला है किन्तु अग्निका निमित्त पाकर स्वयं विकृत होने पर वही घी जलाने का काम करता है, इसीप्रकार आत्मा का अनाकुल ज्ञानस्वभाव स्वयं सुखरूप है किन्तु जब वह स्वभाव से च्युत होकर स्वयं निमित्त का लक्ष्य करता है, तब आकुलता होती है, उसमें यदि शुभराग हो तो पुण्य है और अशुभराग हो तो पाप है। परन्तु पुण्य उस खौलते हुए घी की तरह जीव को आकुलता में जलाने वाला है और पाप से तो साक्षात् अग्नि के समान नरकादि में जीव अत्यन्त दु:खी होता है, इसलिए हे निमित्त ! तू पुण्य के संयोग से जीव को सुख मानता है किन्तु उसमें सुख नहीं है, पुण्य के फल में पंचेन्द्रियों के संयोग से जीव को किस प्रकार सुख होगा ? उलटा पंचेन्द्रियों के विषय का लक्ष्य करने से जीव आकुलित होकर दुःख भोगता है। सुख तो आत्मा के अन्तर स्वभाव में है। अविनाशी ज्ञायकस्वभाव के लक्ष्य से उसकी श्रद्धा, ज्ञान और स्थिरता से ही जीव सुखी होता है, इसलिए अविनाशी उपादान स्वभाव को पहिचानकर उसके लक्ष्य में स्थिर होना चाहिए और निमित्त के लक्ष्य को छोड़ देना चाहिए। प्रथम से ही सत्य का स्वीकार करना चाहिए। आत्मा को सुख चाहिए हैं, आत्मा को अपने सुख के लिए क्या किसी अन्य पदार्थ की सहायता की आवश्यकता है या अपने सुख स्वरूप की श्रद्धा - ज्ञान करके उसमें स्वयं रमण करने की आवश्यकता है ? सुखी होने के लिए पहले उसका उपाय निश्चित करना ही होगा। यह निश्चय करने के लिए यह निमित्त उपादान का संवाद है। मूल में भूल यहाँ यह हजारों आत्मा आये हैं सो किसलिए ? यह सब सुख का मार्ग समझ कर सुखी होने के लिए आये हैं। कोई भी आत्मा नरक में जाने और दुःखी होने की इच्छा नहीं करता । सुख स्वाधीनता में होता है या पराधीनता में ? यदि सुख पर के आधीन हो तो वह नष्ट हो जाय और दुःख आ जाय, परन्तु सुख स्वाधीन है और वह आत्मा में ही स्वतंत्र रूप में विद्यमान है किसी परवस्तु की उपस्थिति से आत्मा को सुख मिलता है यह मान्यता गलत है, पराधीन दृष्टि है और वह महा दुःख देनेवाली है। पैसा इत्यादि से मुझे सुख मिलता है अथवा सच्चे देव - शास्त्र - गुरु से आत्मा के धर्म होता है इसप्रकार जो पर द्रव्य की आधीनता की मान्यता है सो आत्मा को अपनी शक्ति में लूला, लंगड़ा बना देनेवाली है। भला ऐसा होना किसे अच्छा लगेगा। जो जीव परवस्तु से अपने में सुख-दुःख मानता है उस जीव ने अपने को शक्तिहीन लूला, लंगड़ा मान रखा है, जिसकी दृष्टि निमित्ताधीन है वह आत्मशक्ति को नहीं पहचानता और इसीलिए वे जीव चार गति में दुःखी हो रहे हैं। जगत के जीव अपनी आत्मा की सामर्थ्य की सम्भाल नहीं करते और आत्मा को परावलंबी मानकर उससे सुख-शांति मानते हैं किन्तु वह मान्यता यथार्थ नहीं है। परावलम्बन में सुख-शांति है ही नहीं। स्वतंत्रता की यथार्थ मान्यता न हो तो उससे स्वतंत्र सुख कदापि नहीं हो सकता, इसलिए परतंत्रता की ( निमित्ताधीनता की ) दृष्टि में दुःख ही है। धर्म अथवा सुख तो आत्मा की पहिचान के द्वारा ही होता है। निमित्त ने यह तर्क उपस्थित किया था कि भाई, तमाम दुःखों की पोट मेरे ऊपर रख दी है तो यह तो बताइये कि सुख-शांति कहाँ से मिलती है ? सभी प्रकार की अनुकूलता हो तो सुख हो न ? तब उपादान ने उसके तर्क का निषेध करते हुए कहा कि अनकूल सामग्री में आत्मा का सुख है। ही नहीं। 'शरीर ठीक हो ' निरोगता हो, पुख्त उमर हो और भुक्त भोगी हो
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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