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मुल में भूल कोई बलवान नहीं है - हम दोनों समान हैं, कम से कम इतना तो कहो।
उपादान - नहीं, नहीं। निमित्ताधीन परावलम्बी दृष्टि से (व्यवहारनय का आश्रय से) तो जीव अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है। संसार के अधर्म - स्त्री, धन इत्यादि के निमित्त से होते हैं और धर्म देव-गुरु-शास्त्र के निमित्त से होते हैं। इसप्रकार पराधीन माननेवाला निमित्तदृष्टि से ही मिथ्यात्व है और उसी का फल संसार है।
निमित्त - भगवान ने एक कार्य में दो कारण देखे हैं, उपादान कारण और निमित्त कारण । इसलिए कर्म में उपादान और निमित्त दोनों के ५०५० प्रतिशत रखिये। स्त्री का निमित्त हो तो विकार है और गाली देनेवाला हो तो क्रोध होता है। इसलिए ५० प्रतिशत उपादान करता है। इसप्रकार दोनों के एकत्रित होने से कार्य होता है, यह सीधा हिसाब है।
उपादान - गलत, बिलकुल गलत । यह ५०-५० प्रतिशत का सीधा हिसाब नहीं, किन्तु दो और दो = तीन (२+२= ३) जैसी स्पष्ट भूल है। यदि स्त्री अथवा गाली ५० प्रतिशत विकार उत्पन्न करती हो तो केवली सर्वज्ञ के भी विकार होना चाहिए, किन्तु कोई भी निमित्त एक प्रतिशत भी किसी को भी विकार कराने में समर्थ नहीं है। जब जीव स्वयं शत-प्रतिशत स्वत: विकार करता है, तब परवस्तु की उपस्थिति को निमित्त कहा जाता है। इस समझ में ही स्पष्ट हिसाब है कि प्रत्येक द्रव्य भिन्न रहें और स्वतंत्रतया अपनी-अपनी अवस्थाओं के कर्ता होने से कोई द्रव्य किसी दूसरे का कुछ भी नहीं कर सकता।
इस दोहे में निमित्त की प्रार्थना की गई है कि हम दोनों समकक्षी रहें। अनादिकाल से जीव के साथ कर्म चिपके हुए हैं और वे जीव के विकार में निमित्त हो रहे हैं। निमित्तरूप कर्म अनादिकाल से हैं; इसलिए उन्हें जीव के साथ समकक्षी तो रखिये।
मुल में भूल अब उपादान ऐसा उत्तर देता है कि निमित्तरूप जो कर्म परमाणु हैं, वे तो बदलते ही जाते हैं और मैं उपादान स्वरूप आत्मा वैसा का वैसा त्रिकाल रहता हूँ, इसलिए मैं ही बलवान हूँ -
उपादान कहे वह बली, जाको नाश न होय ।
जो उपजत विनशत रहे. बली कहा तैं सोय ।।२३।। अर्थ :- उपादान कहता है कि जिसका नाश नहीं होता, वह बलवान है, जो उत्पन्न होता है और जिसका विनाश होता है वह बलवान कैसे हो सकता है ?
नोट - उपादान स्वयं सदा कार्यरूप परिणत होनेवाली अखण्ड एकरूप वस्तु है, इसलिए उसका नाश नहीं होता। निमित्त तो संयोगरूप है, आता है और जाता है, इसलिए वह नाश रूप है; अतः उपादान ही बलवान है।
जीव स्वयं अज्ञान भाव से भले अनादिकाल से नया-नया राग-द्वेष किया करे, तथापि निमित्त कर्म अनादि से एक से नहीं रहते, वे तो बदलते ही रहते हैं। पुराने निमित्त कर्म खिर जाते हैं और नये बँधते हैं तथा उनका समय पूरा होने पर वे भी खिर जाते हैं । जीव यदि नया राग-द्वेष करता है तो उन कर्मों को निमित्त कहा जाता है। इसप्रकार उपादान स्वरूप आत्मा तो अनादिकाल से वैसा का वैसा ही रहता है और कर्म बदलते रहते हैं, इसलिए मैं ही (उपादान ही) बलवान हूँ। सच्चे देव, गुरु भी पृथक्-पृथक् बदलते जाते हैं और उनकी सच्ची वाणी भी बदलती जाती है, (भाषा के शब्द सदा एक से नहीं रहते) परन्तु सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और उनकी वाणी का ज्ञान करते समय मेरा अपना ही ज्ञान ज्ञान से काम करते हैं। मैं आत्मा त्रिकाल हूँ और गुण अथवा दोष के निमित्त सब बदलते ही जाते हैं। कर्मों के परमाणु भी बदलते जाते हैं, तब फिर कर्म बड़े हैं या मैं ? अज्ञानियों की यह महा मिथ्यात्वरूप भयंकर भूल है कि वे ऐसा मानते हैं कि कर्म आत्मा के पुरुषार्थ को रोकते हैं, आत्मा के पुरुषार्थ को पराधीन मानने वाले