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मूल मेंभून स्वतंत्र हैं और अपनी-अपनी अविकारी अथवा विकारी अवस्था को स्वयं ही स्वतंत्रतया करते हैं। कोई एक दूसरे का कर्ता नहीं है, इसप्रकार स्वतंत्र वस्तुस्वभाव की पहचान करना सो यही प्रथम धर्म है।
आत्मा के गुण के लिए परवस्तु की सहायता की आवश्यकता है, पर वस्तु आत्मा के गुण या दोष उत्पन्न करती है - यह मान्यता ठीक नहीं है। यह बात इस संवाद में सिद्ध की गई है। यदि परवस्तु आत्मा में दोष उत्पन्न करती है तो परवस्तु तो हमेशा रहती है; इसलिए दोष भी स्थायी हो जायेंगे
और वे कभी दूर नहीं हो सकेंगे और यदि गुण के लिए आत्मा को परवस्तु की आवश्यकता हो तो गुण पराधीन हो जायेंगे; परन्तु गुण भी स्वाधीन स्वभाव है, इसलिए आत्मा के गुण-दोषों को परवस्तुएँ उत्पन्न नहीं कर सकतीं। जब जीव स्वयं अपना कार्य करता है तब वह निश्चय (उपादान) है और अन्य वस्तु की उपस्थिति व्यवहार (निमित्त) है। ये दोनों हैं अवश्य, किन्तु अन्य वस्तु उसमें गुण-दोष उत्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं
मुल में भूल इसलिए मैं कहता हूँ कि निमित्त के बल से ही दोष होते हैं।
उपादान ने इसके उत्तर में कहा कि हे निमित्त ! जब उपादान अपना कार्य करता है, तब निमित्त की उपस्थिति होती है। यों श्री सर्वज्ञ भगवान ने देखा है, तब मैं उससे इन्कार कैसे कर सकता हूँ; परन्तु अन्य उपस्थिति वस्तु आत्मा को बिलकुल विकार नहीं कराती।
“यदि मात्र उपादान से ही कार्य हो सकता है तो क्या बिना कर्म के ही आत्मा में अवगुण होते हैं ? बिना कर्म के दोष नहीं होते, इसलिए कर्म का बल ही आत्मा में रागादि उत्पन्न कराता है।" इसप्रकार अज्ञानी जन उपादान को पराधीन मानते हैं। उपादान की स्वाधीनता को प्रकट करते हुए ज्ञानी कहते हैं कि जीव स्वयं समझे तो वह मुक्ति को प्राप्त कर करता है, उसे कर्म नहीं रोक सकते और जीव स्वयं दोष करता है तो कर्म इत्यादि
अन्य वस्तु को निमित्त कहा जाता है; परन्तु कर्म जबरदस्ती से आत्मा को विकार नहीं कराते । इसप्रकार परवस्तु की निमित्तरूप उपस्थिति है, इतना ज्ञान ने स्वीकार किया, किन्तु वह उपादान के लिए किंचित्मात्र भी कुछ करता है - इस बात को बिलकुल जड़ से ही समाप्त कर दिया है।२१।
अब निमित्त कुछ ढीला होकर उपादान और निमित्त दोनों को एक समान (५० प्रतिशत) कहने की लिए उपादान को समझाता है
जो देख्यो भगवान ने, सो ही साँचो आहिं। हम तुम संग अनादि के, बली कहोगे काहि ।।२२। अर्थ :- निमित्त कहता है कि भगवान ने जो देखा है, वह सच है। मेरा और तेरा अनादिकालीन सम्बन्ध है, इसलिए हम दो में बलवान किसे कहा जाये ? अर्थात् कम से कम यह तो कहो हम दोनों समान हैं. समकक्ष हैं।
निमित्त - हे उपादान ! भगवान श्री जिनेन्द्रदेव ने हम दोनों को (उपादान-निमित्त तथा निश्चय-व्यवहार को) देखा है, तब भगवान ने जो देखा है, वह सत्य है। हम दोनों अनादिकाल से एकसाथ रह रहे हैं; इसलिए
पैसा हो तो पुण्य उत्पन्न हो और शरीर की इच्छा हो तो धर्म हो-ये दोनों मान्यताएँ बिलकुल मिथ्या हैं । इसीप्रकार देव-गुरु-शास्त्र की उपस्थिति जीव को धर्म प्राप्त कराती है - यह बात भी मिथ्या है। यदि जीव स्वयं समझे तो धर्म प्राप्त करे और जब स्वयं धर्म को प्राप्त करता है, तब विनय के लिए यह कहा जाता है कि सद्गुरु ने धर्म समझाया; यह व्यवहार है किन्तु वास्तव में कोई किसी को धर्म समझाने के लिए समर्थ नहीं है। इसप्रकार के निश्चय की यदि प्रतीति हो तो इस व्यवहार का कथन सच्चा कहा जा सकता है; ऐसा न हो तो व्यवहार असत् है ही।
निमित्त का तर्क था कि हे उपादान ! तेरी यह सब बात तो ठीक है; किन्तु तेरी आत्मा में जो दोष होता है, वह दोष क्या तेरे स्वभाव में से आता है ? कदापि नहीं। दोष के लिए अन्य वस्तु की उपस्थिति आवश्यक है;