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मुल में भूल सिद्ध हुआ कि निमित्त के अनुसार कार्य नहीं होता, किन्तु उपादान कारण की शक्ति के अनुसार कार्य होता है। इसीप्रकार जब जीव स्वरूप को भूलकर विपरीत दृष्टि से विकार करता है, तब वह उसे स्वयं ही करता है; कोई पर नहीं कराता। सामने निमित्त तो एक का एक ही है, तथापि उपादान की योग्यता के कारण परिणाम में अंतर होता है। ___ इसका दृष्टान्त इसप्रकार है - कोई एक सुन्दर मरी हुई वेश्या मार्ग में पड़ी हुई थी; उसे साधु, चोर, विषयासक्त पुरुष और कुत्ते ने देखा। उनमें से साधु ने विचार किया कि अरे ! ऐसा मनुष्यभव पाकर भी आत्मा को पहचाने बिना मर गई ! चोर ने विचार किया कि यदि कोई यहाँ न हो तो इसके शरीर पर से गहने उतार लूँ, विषयासक्त पुरुष ने यह विचार उत्पन्न किया कि यदि यह जीवित होती तो इसके साथ भोग भोगता और कुत्ते ने ऐसा विचार किया कि यदि यहाँ से सब लोग चले जायें तो मैं इसके शरीर के माँस को खाऊँ।
देखिये, अब यहाँ पर सबके लिए एक-सा ही निमित्त है, तथापि प्रत्येक की उपादान की स्वतंत्रता के कारण विचार में कितना अन्तर हो गया! यदि निमित्त का असर होता हो तो सबके विचार एक समान होने चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। इससे सिद्ध है कि उपादान की स्वाधीनता से ही कार्य होता है। जीव स्वयं ही पापराग-पुण्यराग या पुण्य-पाप रहित शुद्ध वीतराग भावों में से जैसा भाव करना चाहे, वैसा भाव कर सकता
मुल में भूल मात्र है। इसलिए इसे रुचिपूर्वक ठीक समझना चाहिए। ___ अज्ञानी कहता है - कर्म के निमित्त के बिना आत्मा के विकार नहीं होता, इसलिए कर्म ही विकार करता है। ज्ञानी कहता है - आत्मा स्वयं जितना विकार करता है, तब उतना अंश कर्म को निमित्त कहा जाता है, लेकिन वह कर्म आत्मा को विकार नहीं कराता । कोई हजारों गालियाँ दे तो वह क्रोध का कारण नहीं है, किन्तु जीव यदि क्षमा को छोड़कर क्रोध करे तो गाली को क्रोध का निमित्त कहा जाता है। जीव यदि अपने भाव में क्षमा को सुरक्षित रखे तो हजारों या करोड़ों गालियों के होने पर भी उन्हें निमित्त नहीं कहा जा सकता। उपादान को भावानुसार सामने की वस्तु में निमित्तपने का आरोप आता है, किन्तु सामने की वस्तु के कारण उपादान का भाव हो - यह कदापि नहीं होता। उपादान जब स्वाधीनता पूर्वक अपना कार्य करता है, तब दूसरी वस्तु मात्र निमित्तरूप उपस्थित होती है - ऐसा सर्वज्ञदेव ने देखा है, तब हे निमित्त ! मैं इससे इन्कार कैसे कर सकता हूँ!
यहाँ उपादान यह कहना चाहता है कि जगत की दूसरी वस्तुएँ उपस्थित हैं, उन्हें अपने ज्ञान में जानता तो हूँ। दूसरी वस्तु को जानने में हर्ज नहीं है, किन्तु दूसरी वस्तु मुझमें कुछ कर सकती है - यह बात मुझे मान्य नहीं है। जगत में अनन्त परद्रव्य हैं। वे सब सदा स्वतंत्र भिन्न-भिन्न हैं, यदि यों न माने तो ज्ञान असत् है और यदि यह मानें कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ कर सकता है तो भी ज्ञान असत् ही है। जीव तीव्र राग-द्वेष करता है और उसके निमित्त से जो कर्म बँधते हैं, उन कर्मों का जब उदय आता है, तब जीव को तीव्र राग-द्वेष करना ही होता है - यह बात बिलकुल गलत है
और जीव की स्वाधीनता की हत्या करनेवाली है। जब जीव राग-द्वेष करता है, तब कर्म का निमित्त तो होता है, किन्तु कर्म जीव के राग-द्वेष नहीं कराते । जीव द्रव्य अथवा पुद्गल द्रव्य - दोनों अपनी पर्याय में
यह तो समझी जा सकने योग्य धर्म की बात है। प्रथम दशा में समझने के लिए साधारण बात है । सम्यग्दर्शन अर्थात् स्वतंत्र परिपूर्ण आत्मस्वभाव की पहचान को प्रकट करने के पूर्व वस्तु का यथार्थ निर्णय करने के लिए यह प्रथम भूमिका है। कल्याण के लिए यह अपूर्व समझ है। मात्र शब्दों की बात नहीं है, किन्तु यह तो केवलज्ञान की प्राप्ति की बारहखड़ी की प्रथम भूमि