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मूल में भूल
सुलटत ही सूधे चलें, सिद्धलोक को जाहिं ।।१९।।। अर्थ :- उपादान कहता है कि जगत में अनादिकाल से उपादान उलटा हो रहा है, उसके सुलटे होते सच्चा ज्ञान और सच्चा चारित्र प्रकट होता है और उससे वह सिद्धलोक को जाता है - मोक्ष पाता है।
अरे निमित्त ! यह सच है कि उपादान तो सभी आत्माओं में अनादिकाल से है। परन्तु वह उपादान अपने विपरीत भाव से संसार में अटक रहा है, किसी निमित्त ने उसे नहीं रोका। निगोददशा में जीव धर्म को नहीं पा सकता। वहाँ भी वह अपने ही विपरीत भाव के कारण ज्ञानशक्ति को हार बैठा है। यह बात नहीं है कि 'इन्द्रियाँ' नहीं हैं इसलिए ज्ञान नहीं है, किन्तु 'अपने में ही ज्ञानशक्ति का हनन कर चुका है, इसलिए निमित्त भी नहीं हैं' - इसप्रकार उपादान की ओर से कहा गया है। अच्छे कान और अच्छी आँखें मिलने से क्या होता है ? कानों में उपदेश के शब्द आने पर भी यदि उपादान जागृत नहीं है तो धर्म नहीं समझा जा सकता। इसीप्रकार अच्छी आँखें हों और शास्त्रों के शब्द भलीभांति पढ़े जायें, किन्तु यदि उपादान अपनी ज्ञानशक्ति न समझे तो उसके धर्म नहीं होता।
आँखों से और शास्त्र से यदि ज्ञान होता हो तो बड़ी-बड़ी आँखोंवाले भैंसे के सामने पोथा रखकर तो देखिए, इतना अच्छा निमित्त मिलने पर भी वह समझता क्यों नहीं? सच तो यह है कि उपादान में ही शक्ति नहीं है, इसलिए नहीं समझता! कर्म इत्यादि का किसी का जोर आत्मा पर नहीं है। अनादिकाल से उपादान के होने पर भी आत्मा स्वयं अज्ञानदशा में अपने विपरीत पुरुषार्थ से अटक रहा है। जब वह आत्मप्रतीति करके सीधा होता है, तब वह मुक्ति प्राप्त करता है। निमित्त के अभाव से मुक्ति का अभाव नहीं है, किन्तु उपादान की जागृति के अभाव से मुक्ति का अभाव है।
निमित्त कहता है कि एक काम में बहुतों की आवश्यकता होती है।
मूल में भूल उपादान कहता है कि भले ही यह सब कुछ हो, किन्तु एक उपादान न हो तो कोई भी कार्य नहीं हो सकता।
निमित्त - मात्र आटे से रोटी बन सकती है ? चकला, बेलन, तवा, अग्नि और बनानेवाला - ये सब हों तो रोटी बनती है; किन्तु यदि इनकी सहाय न हो तो वह अकेला आटा पड़ा-पड़ा क्या करेगा ? क्या मात्र आटे से रोटी बन जायेगी? कदापि नहीं। तात्पर्य यह है कि निमित्त बलवान है, उसकी सहायता अनिवार्य है।
उपादान - चकला, बेलन, तवा, अग्नि और बनानेवाला इत्यादि सब मौजूद हों, किन्तु यदि आटे की जगह रेत हो तो क्या रोटी बन जायेगी ? कदापि नहीं; क्योंकि उस उपादान में उसप्रकार की शक्ति नहीं है। एकमात्र आटा न होने से रोटी नहीं बनती और आटे में रोटी के रूप में परिणत होने की जिस समय योग्यतारूप उपादानशक्ति है, उस समय वहाँ अनुकूल निमित्त उपस्थित होते ही हैं, किन्तु रोटी स्वयं आटे में से ही होती है, कार्य तो मात्र उपादान से ही होता है। आत्मा में मात्र पुरुषार्थ से ही कार्य होता है। मनुष्य भव, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल, पंचेन्द्रियों की पूर्णता, निरोग शरीर और साक्षात् भगवान की उपस्थिति इत्यादि किसी से भी जीव को लाभ नहीं होता, ये सब निमित्त तो जीव को अनन्त बार मिल चुके, तथापि उपादान स्वयं सुलटा नहीं हुआ; इसलिए किंचित् मात्र भी लाभ नहीं हुआ। यदि स्वयं सुलटा पुरुषार्थ करे तो आत्मा की परमात्मदशा स्वयं अपने में से प्रकट करता है; उसमें उसके लिए कोई निमित्त सहायक नहीं हो सकते। इसमें कितना पुरुषार्थ आया ! उपादान ने एक आत्मस्वभाव को छोड़कर जगत की समस्त पर वस्तुओं की दृष्टि को अपंग बना दिया है। मुझे अपने आत्मा के अतिरिक्त विश्व की किसी भी वस्तु से हानि या लाभ नहीं है, कोई भी वस्तु मुझे राग नहीं कराती, मेरे स्वभाव में राग है ही नहीं - ऐसी श्रद्धा होते ही दृष्टि में न तो राग रहता है