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________________ (३८) मूल में भूल और न पर का अथवा राग का आधार ही रहता है। हाँ, आधार स्वभाव का रह गया, इसलिए राग निराधार-अपंग हो गया । अल्पकाल में ही वह नष्ट हो जायेगा और वीतरागता प्रकट हो जायेगी। ऐसा अपूर्व पुरुषार्थ इस सच्ची समझ में आता है। आँख, कान इत्यादि किसी जीव के अच्छे होने पर भी अज्ञान में तीव्र राग करके कोई जीव सातवें नरक में जाता है; तब वहाँ आँख, कान क्या कर सकते हैं ? श्री गजकुमार मुनि के आँख, कान जल गये थे, तथापि भीतर उपादान के जाग्रत हो उठने से उन्होंने अपनी पर्याय में विशेष शुद्धि की प्राप्ति कर ली। इसमें निमित्त ने क्या किया ? एक द्रव्य दूसरे द्रव्य की अवस्था को रोके या मदद करे यह बात सत्य के जगत में (अनन्त ज्ञानियों के ज्ञान में और वस्तु के स्वभाव में) नहीं है। असत्य जगत (अनन्त अज्ञानी) वैसा मानता है, इसलिए वह संसार में दुःखी होकर परिभ्रमण करता है।) जीव एकेन्द्रिय से सीधा मनुष्य हो सकता है, सो कैसे ? एकेन्द्रिय दशा में तो स्पर्शनेन्द्रिय के सिवाय कोई इन्द्रिय अथवा मन की सामग्री नहीं है, तथापि आत्मा में वीर्यगुण है। उस वीर्य गण के बल पर भीतर शुभभाव करता है, जिससे वह मनुष्य होता है; कर्म का बल कम होने से शुभभाव हुआ - यह बात गलत है। परवस्तु से कोई पुण्य-पाप होता ही नहीं है। जीव स्वयं ही मन्द विपरीत वीर्य से शुभाशुभ भाव करता है। यदि उपादान स्वयं सुलटा होकर समझे तो स्वयं मुक्ति को प्राप्त होता है, विपरीत होने पर स्वयं ही फंसा रहता है, कोई दूसरा उसे नहीं रोकता। ____ जब स्वतंत्र उपादान जागृत होता है, तब निमित्त अनुकूल ही होता है। स्वभाव की प्रतीतिपूर्वक पूर्णता का पुरुषार्थ करते हुए साधकदशा में राग के कारण उच्च पुण्य का बंध हो जाये और उस पुण्य के फल में बाहर धर्म की पूर्णता के निमित्त मिलें, परन्तु जागृत हुआ साधक जीव उस पुण्य मुल में भूल के आश्रय में न रुककर स्वभाव में आगे बढ़ता हुआ पुरुषार्थ की पूर्णता करके मोक्ष को प्राप्त करता है। उपादान मोक्ष प्राप्त करता है, तब बाह्य निमित्त ज्यों के त्यों पड़े रहे जाते हैं, वे उपादान के साथ कहीं नहीं जाते। इसप्रकार पुरुषार्थ की पूर्णता करके मोक्ष होता है। जीव अनादिकाल से विपरीत समझा है; वह खोटे देव-शास्त्र-गुरु के कारण नहीं, किन्तु अपने असमझरूप भाव के कारण ही उलटा समझकर परिभ्रमण कर रहा है। इसीप्रकार जीव यथार्थसमझ स्वयं ही करता है। कान से, आँख से अथवा देव-शास्त्र-गुरु से जीव के सच्ची समझ नहीं होती। यदि कान इत्यादि से ज्ञान हो तो जिसे वे निमित्त मिलते हैं. उन सबको एकसाथ ज्ञान हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है। इसलिए मोक्ष और संसार, ज्ञान और अज्ञान अथवा सुख और दुःख - यह सब उपादान से ही होता है। - इसप्रकार जीव को लाभ-हानि में किसी भी पर का किंचित् मात्र कारण नहीं है। यों दृढ़तापूर्वक सिद्ध करके निमित्त का “कुछ प्रभाव पड़ता है"- इस मिथ्या मान्यतारूप अज्ञान को सम्पूर्ण रीति से समाप्त कर दिया है। अब निमित्त नया तर्क उपस्थित करता है कहुँ अनादि बिन निमित्त ही, उलट रह्यौ उपयोग। ऐसी बात न संभवै, उपादान तुम जोग ।।२०।। अर्थ :- निमित्त कहता है कि क्या अनादि से बिना निमित्त के ही उपयोग (ज्ञान का व्यापार) उलटा हो रहा है । हे उपादान ! तुम्हारे लिए ऐसी बात तो सम्भव नहीं है। उपादान ने १९ वें दोहे में कहा था कि उपादान अनादि से उलटा हो रहा है, उसे लक्ष्य में लेकर निमित्त यह तर्क करता है कि हे उपादान! तझमें अनादि से जो विकार भाव हो रहा है, क्या वह बिना निमित्त ही होता है।
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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