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________________ मूल में भूल ज्ञानी और अज्ञानी की मूल दृष्टि में अन्तर है। अज्ञानी की दृष्टि आत्मस्वभाव पर नहीं है अर्थात् वह स्वाधीन शक्ति को (उपादान को) नहीं जानता, इसलिए वह पराश्रित दृष्टि के कारण संयोग में निमित्त को ही देखता है और इसी की शक्ति को मानता है। ज्ञानी की दृष्टि अपने आत्मस्वभाव पर है, उसे उपादान की स्वाधीन शक्ति की खबर है, इसलिए वह जानता है कि जहाँ अपना स्वभाव साधन होता है, वहाँ निमित्त अवश्य अनुकूल होता है, किन्तु निमित्त पर ज्ञानी की दृष्टि नहीं है, जोर नहीं है। मानव-देह धर्म का कारण होती तो मनुष्य-देह अनन्त बार मिल चुकी है, तब जीव कभी का धर्म को पा गया होता; किन्तु यह जीव इससे पहले धर्म को कभी नहीं प्राप्त हुआ, क्योंकि यदि उसने पहले धर्म को पाया होता तो अभी इसप्रकार संसार में न होता, इसलिए मनुष्य-शरीर जीव को धर्म प्राप्त करने में किंचित् मात्र भी सहायक नहीं है। स्वयं अपने को सहायक हो सकता है। प्रश्न - हमें तो धर्म करना है, उसमें इतना अधिक समझने का क्या काम है और फिर इतना सब समझकर हमें क्या करना है ? उत्तर - हे भाई ! स्व कौन और पर कौन है - इसका निर्णय किए बिना धर्म कहाँ करेगा ? उपादान और निमित्त दोनों स्वतंत्र भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं। यह समझकर पर वस्तु आत्मा के लिए हानि-लाभ का कारण है - यह मिथ्या मान्यता दूर कर देनी चाहिए। आत्मा ही स्वयं अपना हानि-लाभ करता है - ऐसी स्वाधीन दृष्टि होने पर असंयोगी आत्मस्वभाव की सच्ची पहचान होती है, वही धर्म है और वही आत्मकल्याण है। इस बात को समझे बिना जीव चाहे जो करे, किन्तु उसका कल्याण नहीं होता। अब निमित्त यह तर्क उपस्थित करता है कि निमित्त के बिना जीव का मोक्ष रुका हुआ है - मुल में भूल उपादान सब जीव पै, रोकनहारौ कौन। जाते क्यों नहिं मुक्ति में, बिन निमित्त के हौन ।।१८।। अर्थ :- निमित्त कहता है कि उपादान तो सब जीवों के हैं, तब फिर उन्हें रोकनेवाला कौन है ? वे मोक्ष में क्यों नहीं चले जाते ? स्पष्ट है कि निमित्त के न होने से ऐसा नहीं होता। "निमित्त कहता है कि हे उपादान ! यदि उपादान की शक्ति से ही सब काम होते हों तो उपादान तो सभी जीवों में विद्यमान है। सभी जीवों में सिद्ध होने की शक्ति मौजूद है, तब फिर सभी जीव मुक्त क्यों नहीं हो जाते; उन्हें मोक्ष में जाने से कौन रोकता है ? सच तो यह है कि जीवों को अच्छा निमित्त नहीं मिलता; इसलिए वे मोक्ष नहीं जा पाते । मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल, पंचेन्द्रियों की पूर्णता, निरोग शरीर और साक्षात् भगवान की उपस्थिति - यह सब सानुकूल निमित्त मिल जाये तो जीव को धर्म प्राप्त हो । आँखों से भगवान के दर्शन और शास्त्रों का पठन होता है; इसलिए आँख धर्म में सहायक हुई न ! और कान हैं तो उपदेश सुना जाता है। यदि कान न हों तो क्या उपदेश सुन सकेंगे ? तात्पर्य यह है कि कान भी धर्म में सहायक हैं। इसप्रकार यदि इन्द्रियादिक की सामग्री ठीक हो तो जीव की मुक्ति हो । एकेन्द्रिय जीव के भी उपादान तो है, तब फिर वह मोक्ष में क्यों नहीं जाता ? उसके इन्द्रियादिक सामग्री ठीक नहीं है; इसलिए मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता। इससे सिद्ध हुआ कि निमित्त ही बलवान है। निमित्त का तर्क तो देखो ! मात्र संयोग के तरफ की बात ली है, कहीं भी आत्मा का तो कार्य किया ही नहीं है, किन्तु अब उपादान उसका उत्तर देता हुआ मात्र आत्मा की तरफ से कहता है कि भले ही सब कुछ हो, किन्तु आत्मा स्वयं जागृत न हो तो उसकी मुक्ति नहीं होती - उपादान सु अनादि को, उलट रह्यो जग माहिं।
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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