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________________ (३३) मूल में भूल निमित्त - दूसरी सब बातें तो ठीक हैं, किन्तु मुक्ति में नरदेह का निमित्त है या नहीं? मनुष्य शरीर लगेठा तो है ही, यह लगेठा तो होना ही चाहिए। उपादान - अकेले के लिए लगेठा कौन ? नागा बाबा को लगेठा का क्या काम ? नंगे को कौन लूटनेवाला है ? नागा बाबा को लगेठा नहीं होता, इसीप्रकार आत्मा समस्त परद्रव्य के परिग्रह से रहित अकेला स्वाधीन है। मोक्षमार्ग में उसे कोई लूटनेवाला नहीं है। आत्मा अपनी शक्ति से परिपूर्ण है, उसे किसी अन्य लगेठा की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य शरीर जड़ है, वह मुक्ति का लगेठा नहीं हो सकता। ___ मनुष्यभव से ही मुक्ति होती है; अन्य तीन गतियों (देव, तिर्यंच, नरक) से मुक्ति नहीं होती, इसलिए निमित्त ऐसा तर्क करता है, जैसे मानो - मनुष्य-देह आत्मा को मुक्त करा देता है। वह कहता है कि सारी दुनिया का अभिप्राय लो तो इस पक्ष में अधिक मत मिलेंगे कि मनुष्य-देह के बिना मुक्ति नहीं होती; इसलिए मनुष्य-देह से ही मुक्ति होती है और यह बात तो जग प्रसिद्ध है, इसलिए हे उपादान ! इसे तू अपने अन्तरंग में विचार देख। क्या कहीं देव अथवा नरकादि भव से मुक्ति होती है ? कदापि नहीं। इसलिए मनुष्य शरीर ही मक्ति में सहायक है। भाई! आत्मा को मुक्त होने में किसी न किसी वस्तु की सहायता की आवश्यकता पड़ती ही है। सौ हलवाले को भी एक हलवाले की किसी समय आवश्यकता हो जाती है, इसलिए आत्मा को मुक्ति के लिए निश्चयत: इस मानव देह की सहायता आवश्यक है। इसप्रकार बेचारा निमित्त अपना सारा बल एकत्रित करके तर्क करता है किन्तु उपादान का एक जवाब उसे खण्डित कर देता है। उपादान कहता है कि मूल में भून देह पीजरा जीव को, रोकै शिवपुर जात । उपादान की शक्ति सौं, मुक्ति होत रे भ्रात ।।१७।। अर्थ :- उपादान-निमित्त को कहता है कि हे भाई ! देहरूपी पिंजरा तो जीव को शिवपुर (मोक्ष) जाने से रोकता है, किन्तु उपादान की शक्ति से मोक्ष होता है। नोट - यहाँ पर जो यह कहा है कि देहरूपी पिंजरा जीव को मोक्ष जाने से रोकता है. सो यह व्यवहार कथन है। जीव शरीर पर लक्ष्य करके अपनेपन की ममत्व की पकड़ से स्वयं विकार में रुक जाता है, तब शरीर का पिंजड़ा जीव को रोकता है - यह उपचार से कथन है। हे निमित्त ! तू कहता है कि मनुष्य-देह जीव को मोक्ष के लिए सहायक है, किन्तु भाई ! देह का लक्ष्य तो जीव को मोक्ष जाने से रोकता है; क्योंकि शरीर के लक्ष्य से तो राग ही होता है और राग जीव की मुक्ति को रोकता है; इसलिए देहरूपी पिंजड़ा जीव को शिवपुर जाने से रोकने में निमित्त है। ज्ञानी मुनि (साधु) पुरुष सातवें-छठे गुणस्थान में आत्मानुभव में झूलता हो, तब वहाँ छठे गुणस्थान पर संयम के हेतु से शरीर के निर्वाह के लिए आहार की शुभ इच्छा होती है, सो वह भी मुनि के केवलज्ञान और मोक्ष को रोकती है; इसलिए हे निमित्त ! शरीर आत्मा की मुक्ति में सहायक होता है, तेरी यह बात बिलकुल गलत है। __ और फिर मनुष्य शरीर कहीं पहली बार नहीं मिला है। ऐसे शरीर तो अनन्त बार प्राप्त हो चुके हैं, तथापि जीव मुक्त क्यों नहीं हुआ ? स्वयं अपने स्वाधीन आनन्द स्वरूप को नहीं जाना तथा जैसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा है उसे नहीं समझा और पराश्रय में ही अटका रहा; इसलिए मुक्ति नहीं हुई। केवलज्ञान और मुक्ति आत्मा के स्वाश्रयभाव से उत्पन्न हुई अवस्था है, वे शरीर की हड्डियों में से अथवा इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होते।
SR No.008359
Book TitleMool me Bhool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size269 KB
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