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मूल में भूल
अर्थ :- उपादान कहता है कि दया, दान, पूजा इत्यादि भले ही जगत में बाह्य सुविधा दें, किन्तु जहाँ अनुभव के आचरण पर विचार करते हैं, वहाँ यह सब (शुभभाव) बन्ध है (धर्म नहीं)।
पर जीव की दया में राग को कम करने से, दान में तृष्णा को कम करने से और पूजा भक्ति में शुभराग करने से जो पुण्यबन्ध होता है, वह जगत में संसार के विकारी सुख का कारण है; किन्तु वास्तव में तो वह दुःख ही है। सच्चे सुख के स्वरूप को जाननेवाले सम्यग्ज्ञानी उस पुण्य को और उसके फल सुख नहीं मानते। उस पुण्यभाव से रहित अपने शुद्ध पवित्र आत्मा का अनुभव ही सच्चा सुख है, पुण्यभाव से तो आत्मा को बन्ध होता है; इसलिए वह दुःख ही है और उसका फल दुःख का ही निमित्त है। पुण्य तो आत्मा के गुण को रोकता है और जड़ का संयोग कराता है, उसमें आत्मा के गुण का लाभ नहीं होता । यदि यह यथार्थ समझ के द्वारा आत्मा को पहचानकर उसका अनुभव करे तो परमसुख और सच्चा लाभ हो, इसमें पुण्य और निमित्त (पुण्य का फल) इन दोनों से सुख होता है - यह बात उड़ा दी गई है। पुण्य के फल के रूप में बाह्य में जो कुछ संयोग मिलता है, उसे अज्ञानी जीव सुख मानता है, किन्तु बाह्य सामग्री से और जड़ में आत्मा का लाभ अथवा सुख किंचित्मात्र भी नहीं है।
निमित्त ने कहा था कि पुण्य से जीव सुखी होता है। यह उपादान कहता है कि किसी भी प्रकार का जो पुण्य परिणाम होता है, वह आत्मा को बांधता है, आत्मा के अविकारी धर्म को रोकता है। इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि अशुभ से बचने के लिए शुभभाव न किये जायें, किन्तु यह समझना चाहिए कि वह पुण्य परिणाम आत्मधर्म में सुख में सहायक नहीं है। आत्मा की पहचान करने से ही धर्म होता है, किन्तु अधिकाधिक पुण्य करने से वह आत्मा के धर्म के लिए निमित्तरूप सुख
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मूल में भूल होगा - यह कदापि नहीं हो सकता। उपादान स्वरूप आत्मा का ही बल है, निमित्त का नहीं।
देखो तो इस बाल-बच्चोंवाले गृहस्थ ने संवत् १७५० में उपादाननिमित्त के स्वरूप को कितना स्पष्ट किया था। सभी पहलुओं से तर्क उपस्थित किये हैं। जैसे किसी का किसी के साथ कोई झगड़ा पड़ा हो तो वह उसके विरोध में तर्क करके दावा दायर करता है और नीचे की अदालत में असफल होने पर हाईकोर्ट में जाता है और वहाँ पर भी असफल होने पर प्रीवी कौंसिल में अपील करता है और इसप्रकार तमाम शक्य प्रयत्न करता है; उसीप्रकार यहाँ पर निमित्त भी नये-नये तर्क उपस्थित करता है, उलट-पुलटकर जितनी बन सकती हैं, वे सब दलीलें रखता है, किन्तु उसकी एक भी दलील उपादान तर्क के सामने नहीं टिक सकती। उपादान की तो एक ही बात है कि आत्मा अपने उपादान से स्वतंत्र है; आत्मा की सच्ची श्रद्धा, ज्ञान और स्थिरता ही कल्याण का उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है । अन्त में निमित्त और उपादान दोनों की युक्तियों को भलीभाँति जानकर सम्यग्ज्ञानरूपी न्यायाधीश अपना यथार्थ निर्णय देगा, जिसमें उपादान की जीत और निमित्त की हार होगी।
अभी तक निमित्त ने अपने को उपादान के सामने बलवान सिद्ध करने के लिए अनेक प्रकार के तर्क उपस्थित किये और उपादान ने न्याय के बल से उसके सभी तर्कों का खण्डन कर दिया है।
अब निमित्त नये प्रकार का तर्क उपस्थित करता है
यह तो बात प्रसिद्ध है, सोच देख उर माहिं । नरदेही के निमित्त बिन, जिय क्यों मुक्ति न जाहिं ।। १६ ।।
अर्थ :- निमित्त कहता है कि यह बात तो प्रसिद्ध है कि नरदेह के निमित्त बिना जीव मुक्ति को प्राप्त नहीं होता; इसलिए हे उपादान ! तू इस सम्बन्ध में अपने अन्तरंग में विचार कर देख ।