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(कुन्दकुन्द शतक
कुन्दकुन्द शतक)
(९६) ईसाभावेण पुणो केई जिंदति सुन्दरं मग्गं । तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे।। यदि कोई ईर्ष्याभाव से निन्दा करे जिनमार्ग की।
छोड़ो न भक्ती वचन सुन इस वीतरागी मार्ग की।। यदि कोई ईर्ष्याभाव से इस सुन्दर मार्ग की निन्दा करें तो उनके वचनों को सुनकर हे भव्यों ! इस सुन्दर जिनमार्ग में अभक्ति मत करना।
इस सच्चे मार्ग में अभक्ति - अश्रद्धा करने का फल अनंत संसार है; अतः किसी के कहने मात्र से इस सुन्दर मार्ग को त्यागना बुद्धिमानी नहीं है।
मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खाद। मग्गो मोक्खउवाओ तस्स फलं होइ णिव्वाणं ।।
जैन शासन में कहा है मार्ग एवं मार्गफल ।
है मार्ग मोक्ष-उपाय एवं मोक्ष ही है मार्गफल ।। जिनशासन में मार्ग और मार्गफल - ऐसे दो प्रकार कहे गये हैं। उनमें मोक्ष के उपाय को मार्ग कहते हैं और उसका फल निर्वाण (मोक्ष) है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता मोक्ष का मार्ग है। तथा इनकी पूर्णता से जो अनन्तसुख, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन एवं अनन्तवीर्य तथा अव्याबाध आदि गण प्रगट होते हैं: वही मोक्ष है।
(९४) णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ।। है जीव नाना कर्म नाना लब्धि नानाविध कही।
अतएव वर्जित वाद है निज-पर समय के साथ भी।। जीव नाना प्रकार के हैं, कर्म नाना प्रकार के हैं और लब्धियाँ भी नाना प्रकार की हैं। अतः स्वमत और परमतवालों के साथ वचनविवाद उचित नहीं है, निषेध योग्य है। किसी से वाद-विवाद करना आत्मार्थी का काम नहीं है।
(९५) लद्भूणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते । तह णाणी णाणणिहिं भुजेइ चइत्तु परततिं ।।
ज्यों निधि पाकर निज वतन में गुप्त रह जन भोगते।
त्यों ज्ञानिजन भी ज्ञाननिधि परसंग तज के भोगते ।। जिसप्रकार कोई व्यक्ति निधि को पाकर अपने वतन में गुप्तरूप से रहकर उसके फल को भोगता है, उसीप्रकार ज्ञानी भी जगतजनों से दूर रहकर - गुप्त रहकर ज्ञाननिधि को भोगते हैं। ९३. नियमसार, गाथा २
९४. नियमसार, गाथा १५६ ९५. नियमसार, गाथा १५७
मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती। तेण दु जीवो पावइ असहायगुणं णियप्पाणं ।।
जो थाप निज को मुक्तिपथ भक्ती निवृत्ती की करें।
वे जीव निज असहाय गुण सम्पन्न आतम को वरें।। मोक्षपथ में अपने आत्मा को अच्छी तरह स्थापित करके जो व्यक्ति निवृत्ति-भक्ति करता है, निर्वाण-भक्ति करता है, निज भगवान आत्मा की भक्ति करता है, निज भगवान आत्मा में ही अपनापन स्थापित करता है, उसे ही अपना जानता-मानता है, उसका ही ध्यान करता है; वह निश्चय से असहाय गुणवाले निजात्मा को प्राप्त करता है।
(९८) मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिं पि। जो कुणदि परमभत्तिं ववहारणयेण परिकहियं ।। मुक्तिगत नरश्रेष्ठ की भक्ती करें गुणभेद से ।
वह परमभक्ती कही है जिनसूत्र में व्यवहार से ।। मोक्ष में गये हुए पुरुषों के गुणभेद जानकर उनकी परम भक्ति करना व्यवहारनय से भक्ति कहलाती है। मक्ति को प्राप्त महापुरुषों का - भगवन्तों का गुणानुवाद ही व्यवहार भक्ति है। ९६. नियमसार, गाथा १८६
९७. नियमसार, गाथा १३६ ९८. नियमसार, गाथा १३५