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(कुन्दकुन्द शतक
कुन्दकुन्द शतक)
(८७) सोवणियं पिणियलं बंधदि कालायसं पिजह पुरिसं। बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ।।
ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बाँधती।
इस भाँति ही शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बाँधती ।। जिस प्रकार लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, उसीप्रकार सोने की बेड़ी भी बाँधती ही है। इसीप्रकार जैसे अशुभकर्म (पाप) जीव को बाँधता है, वैसे ही शुभकर्म (पुण्य) भी जीव को बाँधता ही है। बंधन में डालने की अपेक्षा पुण्य-पाप दोनों कर्म समान ही हैं।
(८८) तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा कुणह मा व संसग्गं । साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायण ।। दुःशील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो।
दुःशील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो ।। सचेत करते हुए आचार्य कहते हैं कि पुण्य-पाप इन दोनों कुशीलों के साथ राग मत करो, संसर्ग भी मत करो; क्योंकि कुशील के साथ संसर्ग और राग करने से स्वाधीनता का नाश होता है।
(९०) सपरं बाधासहिदं विच्छिण्णं बंधकारणं विसमं । जं इन्दिएहिं लद्धं तं सोक्खं दुक्खमेव तहा ।। इन्द्रियसुख सुख नहीं दुख है विषम बाधा सहित है।
है बंध का कारण दुखद परतंत्र है विच्छिन्न है।। इन्द्रियों से भोगा जाने वाला सुख पराधीन है, बाधासहित है, विच्छिन्न है, बंध का कारण है, विषम है; अतः उसे दुःख ही जानो । तात्पर्य यह है कि पुण्योदय से प्राप्त होने वाला सुख, दुःख ही है।
(९१) सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि तस्स दुणियम हवे णियमा ।। शुभ-अशुभ रचना वचन वा रागादिभाव निवारिके।
जो करें आतम ध्यान नर उनके नियम से नियम है।। शुभाशुभ वचन रचना और रागादिभावों का निवारण करके जो आत्मा अपने आत्मा को ध्याता है, उसे नियम से नियम होता है। तात्पर्य यह है कि शुभाशुभभाव का अभाव कर अपने आत्मा का ध्यान करना ही धर्म है, नियम है।
(९२) णियमेण य ज कज्जं तं णियमं णाणदसणचरित्तं । विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ।।
सद्-ज्ञान-दर्शन-चरित ही है 'नियम' जानो नियम से।
विपरीत का परिहार होता 'सार' इस शुभ वचन से।। नियम से करने योग्य जो कार्य हो, उसे नियम कहते हैं। आत्महित की दृष्टि से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही करने योग्य कार्य हैं; अतः वे ही नियम हैं। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र की निवृत्ति के लिए 'नियम' के साथ 'सार' शब्द जोड़ा गया है।
अतः सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही नियमसार है। ९०. प्रवचनसार, गाथा ७६ ९१. नियमसार, गाथा १२० ९२. नियमसार, गाथा ३
ण हि मण्णदि जो एवं णस्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं। हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछण्णो ।।
पुण्य-पाप में अन्तर नहीं है - जो न माने बात ये।
संसार-सागर में भ्रमे मद-मोह से आच्छन्न वे ।। इसप्रकार जो व्यक्ति 'पुण्य और पाप में कोई अन्तर नहीं है' - ऐसा नहीं मानता है अर्थात् उन्हें समानरूप से हेय नहीं मानता है, वह मोह से आच्छन्न प्राणी अपार घोर संसार में अनन्तकाल तक परिभ्रमण करता है। ८७. समयसार, गाथा १४६
८८. समयसार, गाथा १४७ ८९. प्रवचनसार, गाथा ७७