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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका "हमारे एक गुरुभाई मूलचन्दजी ने सन् १९१६ में पालियाद के पास सरवा गाँव में चर्चा करते हुये हम से कहा - "यदि भगवान ने हमारे अनंत भव देखे हैं, तो हम चाहे कितना भी पुरुषार्थ करें, परंतु हमारा एक भी भव कम नहीं होगा।" इससे पहले भी वे अनेक बार ऐसी पुरुषार्थ-हीनता की बात कह चुके थे।
एक बार मैंने उससे कहा - "भाई! लोकालोक को जानने वाले सर्वज्ञ की सत्ता जगत में है - ऐसी श्रद्धा क्या तुमको है? जगत में सर्वज्ञ है- ऐसा निर्णय क्या तुम्हे है? क्योंकि जिसे सर्वज्ञ की सत्ता स्वीकार है, उसकी दृष्टि स्वभावसन्मुख हो जाती है, और भगवान ने उसके अनंत भव देखे ही नहीं हैं।"
इस घटना से ज्ञात होता है कि पूज्य गुरुदेवश्री की इस सिद्धान्त पर कितनी दृढ़ श्रद्धा थी। उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए तर्क से सिद्ध होता है कि क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में सर्वज्ञ की श्रद्धारूप व्यवहारसम्यक्त्व और सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा की श्रद्धारूप निश्चयसम्यक्त्व अर्थात् मुक्ति के मार्ग का सच्चा पुरुषार्थ गर्भित है।
यदि हम आत्मकल्याण करना चाहते हैं, मुक्ति प्राप्त करके अनंत अतीन्द्रिय निराकुल सुख प्रगट करना चाहते हैं, तो हम निष्पक्ष हृदय से इस सिद्धांत को गहराई से समझें । इस सिद्धांत को समझने से हमें सर्वज्ञता, वस्तुस्वातन्त्र्य, सम्यक्-पुरुषार्थ, अकर्त्तावाद, पाँच समवाय आदि अनेक प्रयोजनभूत विषय भी समझ में आयेंगे। इसीलिए क्रमबद्धपर्याय' की विशेष कक्षा यहाँ प्रारंभ की जा रही है।"
इसप्रकार समयानुसार इस प्रकरण पर संक्षेप या विस्तार से प्रकाश डालें।
(नोट :- यदि समय की अनुकूलता हो तो पाठ्य-पुस्तक का 'प्रकाशकीय' पढ़कर विस्तृत भूमिका बनाई जा सकती है। अन्यथा छात्रों को उसे पढ़ने की प्रेरणा अवश्य देना चाहिए।)
अध्याय १
अपनी बात लेखक ने सर्वप्रथम अपनी बात लिखकर अपने जीवन के उन पहलुओं पर प्रकाश डाला है, जो क्रमबद्धपर्याय से सम्बन्धित हैं। उन्होंने क्रमबद्धपर्याय के सन्दर्भ में उत्पन्न शंका से प्रारंभ करके पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी के समागम में आकर क्रमबद्धपर्याय' पुस्तक लिखने तक की सभी घटनाओं का उल्लेख करते हुए अपने जीवन में इस सिद्धान्त का सर्वोपरि स्थान निरूपित किया है।
हम सभी को लेखक के जीवन से इस विषय को समझकर आत्मकल्याण करने की प्रेरणा मिले - इस उद्देश्य से इस प्रकरण पर चर्चा की जा रही है।
'क्रमबद्धपर्याय' का शिक्षण ‘अपनी बात' से प्रारंभ कर देना चाहिए। सर्वप्रथम 'अपनी बात' के संबंध में अध्यापक निम्नानुसार विशेष परिचय दें -
यद्यपि क्रमबद्धपर्याय जिनागम में प्रतिपादित मौलिक सिद्धांत है, जिसे इस युग में आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी ने प्रस्तुत किया है; तथापि इस सिद्धांत को आगम और युक्तिसंगत तर्कप्रधान शैली में प्रस्तुत करने का श्रेय डॉ. हुकमचंदजी भारिल्ल को है। उन्होंने स्वयं इस विषय का गहराई से चिन्तन और मंथन करके इसका अमृतपान किया है, तथा अपने गंभीर चिंतन से इस सिद्धान्त के विरुद्ध प्रस्तुत किए जाने वाले तर्कों का समाधान किया है। जब यह पुस्तक लिखी जा रही थी, तब वे प्रवचनों में भी प्रायः इसी विषय की चर्चा करते थे। विदेशों में भी प्रायः इसी विषय की चर्चा धाराप्रवाह अनेक वर्षों तक चली। अतः अनेक वर्षों तक मुमुक्षु समाज का वातावरण क्रमबद्धपर्याय की चर्चा से ओतप्रोत रहा। अभी भी यह धारा चाल है। यद्यपि अन्य अनेक विद्वान भी इस विषय की चर्चा करते हैं, तथापि उसे मौलिक ढंग से प्रस्तुत करने के कारण इसका श्रेय डॉ. साहब को ही है,
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