________________ क्रमबद्धपर्याय पोषक महत्त्वपूर्ण विचार बिन्दु : 1. प्रत्येक पर्याय अपने स्वकाल में त्रिकाल विद्यमान है। 2. परिणाम को नहीं हटा सकते, परिणाम में से एकत्व हटा सकते हैं। - अध्यात्म गंगा : बोल क्रमांक 89 क्रमबद्धपर्याय और पुरुषार्थ अज्ञानी कहते हैं कि इस क्रमबद्धपर्याय को मानें तो पुरुषार्थ उड़ जाता है; किन्तु ऐसा नहीं है। इस क्रमबद्धपर्याय का निर्णय करने से कर्ताबुद्धि का मिथ्याभिमान उड़ जाता है और निरन्तर ज्ञायकपने का सच्चा पुरुषार्थ होता है। ज्ञानस्वभाव का पुरुषार्थन करे उसकेक्रमबद्धपर्याय का निर्णय भी सच्चा नहीं है। ज्ञानस्वभाव के पुरुषार्थ द्वारा क्रमबद्धपर्याय का निर्णय भी सच्चा नहीं है। ज्ञानस्वभाव के पुरुषार्थ द्वारा क्रमबद्धपर्याय का निर्णय करके जहाँ पर्याय स्वसन्मुख हुई, वहाँ एक समय में उस पर्याय में पाँचों समवाय आ जाते हैं। ...पुरुषार्थ, स्वभाव, काल, नियत और कर्म का अभाव - यह पाँचों समवाय एकसमय की पर्याय में आ जाते हैं। 3. क्रमबद्ध की श्रद्धा में अकर्तापना आता है। जो हो रहा है, उसे क्या करना? उसे मात्र जानना है / मात्र जाननेवाला रहने पर राग टलता जाता है और वीतरागता बढ़ती जाती है। - अध्यात्म गंगा : बोल क्रमांक 101 4. पर्यायें तो जैसी स्वयं होनी हैं वैसी ही होती हैं, उनको क्या बदलना है? उनको क्या ठीक करना है? यह समझते ही समझ बदल गई और अपना कार्य शुरू हो गया; भगवान बन गया अपने द्रव्य का। - अध्यात्म गंगा : बोल क्रमांक 202 ज्ञायकस्वभाव के आश्रय से पुरुषार्थ होता है, तथापि पर्याय का क्रम नहीं टूटता। देखो, यह वस्तुस्थिति! पुरुषार्थ भी नहीं उड़ता और क्रम भी नहीं टूटता / ज्ञायकस्वभाव के आश्रय से सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रादि का पुरुषार्थ होता है और वैसी निर्मल दशाएँ होती जाती हैं; तथापि पर्याय की क्रमबद्धता नहीं टूटती। - पूज्यश्रीकानजी स्वामी : ज्ञानस्वभाव-ज्ञेयस्वभाव 5. वास्तव में सम्पूर्ण लोक को जानें तीर्थनाथ भगवान / एक अनघ निज सुख में स्थित है जो निज ज्ञायक भगवान, उसे न जाने तीर्थनाथ वे - ऐसा यदि कोई मुनिराज / कहते हैं व्यवहार मार्ग से, तो नहिं दोषी वे मुनिराज / / - नियमसार कलश 285 का पद्यानुवाद .. .