SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रमबद्धपर्याय: निर्देशिका मिथ्या एकान्त :- नयाभास मिथ्या एकान्तरूप हैं, अन्य धर्मों का निषेध करते हुए किसी एक धर्म को ही सर्वथा स्वीकार करके वस्तु को देखना मिथ्या एकान्त है । जैसे-वस्तु सर्वथा नित्य है । १२० सम्यक्-अनेकान्त :- सापेक्षनयों का समूह अर्थात् प्रमाण सम्यक् - अनेकान्तरूप है। वस्तु के प्रत्येक धर्म को मुख्य गौण किए बिना स्वीकार करना सम्यक्-अनेकान्त है । जैसे - वस्तु कथंञ्चित् नित्य और कथंञ्चित् अनित्य है । मिथ्या- अनेकान्त :- निरपेक्षनयों का समूह अर्थात् प्रमाणभास मिथ्या अनेकान्त है । वस्तु के धर्मों को अपेक्षा लगाए बिना स्वीकार करना मिथ्याअनेकान्त है । जैसे - वस्तु सर्वथा नित्य और सर्वथा-अनित्यरूप है । इसे उभयैकान्त भी कहते हैं। प्रश्न १२. पाँच समवायों का स्वरूप बताइये? उत्तर :- प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में पाँच बातें होना अनिवार्य है। इन पाँच तथ्यों ) को ही पाँच समवाय कहते हैं। इन समवायों की चर्चा किसी न किसी कार्य विशेष के सन्दर्भ में ही की जाती है क्योंकि ये समवाय ही उस विशेष कार्य की उत्पत्ति के कारण बनते हैं। इनका स्वरूप निम्नानुसार है। (१) स्वभाव :- किसी भी पदार्थ में किसी कार्य विशेषरूप परिणमित होने की शक्ति उसका स्वभाव है। पदार्थ स्वभाव की मर्यादा के विरुद्ध किसी कार्य को उत्पन्न नहीं कर सकता। जैसे तिल में से तेल उत्पन्न करने की शक्ति है, रेत में नहीं । आत्मा में सम्यग्दर्शन उत्पन्न करने की शक्ति है, पुद्गल में नहीं। (२) पुरुषार्थ :- कार्यरूप परिणमित होने में पदार्थ की शक्ति का उपयोग (परिणमन) होना पुरुषार्थ है। प्रत्येक पदार्थ में प्रति समय पर्यायों की उत्पत्ति में उसके वीर्य गुण का परिणमन होता है। अर्थात् उसकी शक्ति का उपयोग होता है। यही पुरुषार्थ है जैसे - तिल में से तेल निकलते समय उसकी शक्ति का परिणमन होता है । आत्मा में सम्यक्त्वरूप कार्य होते समय उसकी श्रद्धा गुण की परिणमन शक्ति काम आती हैं। अतः स्वभाव द्वारा कार्यरूप परिणमित होना ही पुरुषार्थ है । 62 क्रमबद्धपर्याय: प्रासंगिक प्रश्नोत्तर १२१ प्रत्येक पदार्थ में प्रत्येक कार्य पुरुषार्थ पूर्वक ही होता है अर्थात् उसमें उसकी परिणमन शक्ति खर्च होती है। कार यदि आगे चले तो भी पेट्रोल जलता है और पीछे चले तो भी पेट्रोल जलता है। सातवें नरक की आयु बांधने योग्य परिणामों में तीव्रतम पापरूप पुरुषार्थ, तीर्थंकर प्रकृति बाँधने योग्य परिणामों में तीव्रतम पुण्यरूप पुरुषार्थ और सकल कर्मक्षय योग्य परिणमों में स्वभाव - सन्मुखता का अनन्त पुरुषार्थ होता है। मोक्षमार्ग के प्रकरण में पुरुषार्थ की व्याख्या निम्नानुसार की जाती है। पुरु= उत्तम चेतना गुण में, सेते= स्वामी होकर प्रवर्तन करे, अर्थात् ज्ञानदर्शन चेतना के स्वामी को पुरुष कहते हैं। अर्थ = प्रयोजन । उत्तम चेतना गुण के स्वामी होकर प्रवर्तन करना जिसका प्रयोजन है, उसे पुरुषार्थ कहते हैं । मुक्ति के मार्ग में आत्मानुभव की प्राप्ति का प्रयास ही पुरुषार्थ है । मोह-राग-द्वेष आदि परिणामों को मोक्षमार्ग की अपेक्षा मिथ्यापुरुषार्थ, विपरीतपुरुषार्थ, नपुंसकता, पुरुषार्थ की कमजोरी इत्यादि शब्दों से सम्बोधित किया जाता है। (३) काललब्धि :- किसी कार्य की उत्पत्ति का स्व-काल ही काललब्धि है। जिस समय तिल में से तेल निकला वह समय ही तेल निकलने की काललब्धि है । अथवा जिस समय जीव को सम्यग्दर्शन हुआ वह समय ही काललब्धि है। प्रत्येक कार्य अपने स्व-काल में त्रिकाल विद्यमान रहता है, तथा स्वकाल आने पर ही वस्तु में प्रगट होता है। किसी कार्य के प्रगट होने का स्व-काल निश्चित होना ही क्रमबद्धपर्याय है। उसके स्व-काल से पहले या पीछे उसे प्रगट नहीं किया जा सकता, तथा स्वकाल में प्रगट होने से उसे रोका नहीं जा सकता। (४) भवितव्य :- होने योग्य कार्य ही भवितव्य है। इसे होनहार भी कहते हैं। तिल में से तेल निकला अथवा जीव को सम्यग्दर्शन हुआ, तो तेल और सम्यग्दर्शन कार्य है अर्थात् भवितव्य है। भू-धातु में तव्यत् प्रत्यय लगाने से भवितव्य शब्द बनता है, जिसका अर्थ 'होने योग्य' होता है।
SR No.008357
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size244 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy