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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका है। यदि वस्तु का परिणमन केवलज्ञान में जाने गए क्रमानुसार न हो तो केवलज्ञान में अप्रमाणिकता का प्रसंग आएगा, जो किसी को भी इष्ट नहीं है। सर्वज्ञ भगवान वस्तु की त्रिकालवर्ती पर्यायों को जानते हैं, इससे वह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि वस्तु का परिणमन निश्चित है। यदि वस्तु की त्रिकालवर्ती पर्यायों का क्रम निश्चित न होता तो उन्हें सर्वज्ञ भगवान कैसे जानते? फिर केवलज्ञान का क्या स्वरूप होगा? कोई न कोई पर्याय तो होगी - क्या ऐसा अनिश्चयात्मक होगा? यदि ऐसा हो तो छद्मस्थ के ज्ञान में और केवलज्ञान में क्या अन्तर रह जाएगा? यदि इन प्रश्नों पर गम्भीरता से विचार किया जाए तो सहज समझ में आ जाएगा कि सर्वज्ञ द्वारा वस्तु की त्रिकालवर्ती पर्यायों का जानना ही उन पर्यायों की निश्चितता को बताता है।
लोक में भी किसी कार्यक्रम की घोषणा तभी की जाती है, जबकि वह निश्चित कर लिया गया हो । न केवल वह कार्य, अपितु उसका समय, स्थान, विधि, पूर्व-प्रक्रिया, उससे सम्बन्धित कार्यकर्ता आदि निश्चित होने पर ही उसकी घोषणा की जाती है। कल्पना कीजिए कि किसी की शादी का निमंत्रण दिया जाए; परन्तु कब, कहाँ, किससे होगी - यह पूछने पर यह कहा जाए कि कभी न कभी, कहीं न कहीं, किसी न किसी से होगी; तो उस घोषणा को लोक में कौन स्वीकार करेगा? अतः यह सिद्ध होता है कि किसी भी घटना की पूर्व घोषणा या पूर्व ज्ञान उसके निश्चित होने को बताता है।
प्रश्न १०. यदि केवलज्ञान द्वारा ज्ञात होने से वस्तु का परिणमन निश्चित माना जाए तो छद्मस्थ द्वारा ज्ञात न होने से उसे अनिश्चित क्यों न माना जाए?
उत्तर :- छद्यस्थ वस्तु की त्रिकालवर्ती पर्यायों को नहीं जानता, इससे उसका अज्ञान सिद्ध होता है, वस्तु के परिणमन की अनिश्चितता नहीं। लोक में भी किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि अमुक ट्रेन कब आएगी? तो वह यही कहेगा कि मुझे पता नहीं हैं आपरेलवे के पूछताछ कार्यालय से पूछ लो। 'मुझे पता नहीं' कहकर वह अपने अज्ञान को तथा पूछताछ कार्यालय से पूछ लो' कहकर उसके निश्चितपने को स्वीकार करता है।
क्रमबद्धपर्याय : महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
१०१ प्रश्न ११. क्रमबद्धपर्याय की सिद्धि में सर्वज्ञता का आधार क्यों लिया जाता है?
उत्तर :- जिस प्रकार धुंए से अग्नि का ज्ञान होता है, क्योंकि धुएँ की अग्नि से अन्यथा-अनुपपत्ति है, अर्थात् धुआँ अग्नि के बिना नहीं होता, अतः उसे अग्नि का ज्ञापक-हेतु कहा जाता है; उसीप्रकार सर्वज्ञता की वस्तु के सुनिश्चित परिणमन से अन्यथा-अनुपपति है, अर्थात् परिणमन-व्यवस्था सुनिश्चित हुए बिना सर्वज्ञ उसे नहीं जान सकते । सर्वज्ञ के जाने हुए क्रमानुसार ही वस्तु परिणमित होती है। तभी तो यह कहा जा सकता है कि वह परिणमन अपने निश्चित समय में हुआ है, अन्यथा वह परिणमन निश्चित समय पर हुआ या आगे पीछे हुआ है - यह किस आधार पर कहा जा सकेगा?
एक ट्रेन किसी स्टेशन पर सुबह १० बजे आई। यदि उसके आने का सुनिश्चित समय ज्ञात न हो तो यह कैसे कहा जा सकेगा कि वह समय से पहले आई है, समय पर आई है या विलम्ब से आई है? सर्वज्ञतारूपी दर्पण में प्रत्येक कार्य का सुनिश्चित समय झलकता है, और वह कार्य उसी समय होता है, अतः सर्वज्ञता क्रमबद्धपर्याय की सिद्धि में सबसे प्रबल ज्ञापक हेतु है।
प्रश्न १२. क्या वस्तु का परिणमन केवलज्ञान के आधीन है?
उत्तर :- प्रत्येक वस्तु का परिणमन उसकी तत्समय की योग्यतानुसार सहज होता है, अतः वह किसी के आधीन नहीं है। केवलज्ञानी भी अपनी योग्यता के कारण उस परिणमन को जानते मात्र हैं। जानने से वस्तु पराधीन नहीं हो जाती । हम सब जानते हैं कि रविवार के बाद सोमवार आएगा। तो क्या सोमवार का आना हमारे ज्ञान के आधीन हो गया? नहीं। अतः सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय में ज्ञाता-ज्ञेय सम्बन्ध मात्र है, कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है।
प्रश्न १३. अज्ञानियों द्वारा क्रमबद्धपर्याय का विरोध क्यों और कैसे किया जाता है?
उत्तर :-अनादि काल से यह जीव अपने को पर-पदार्थों का कर्ता मानरहा है। वह अपनी पर्यायों को भी अपनी इच्छानुसार उत्पन्न करना चाहता है; परन्तु क्रमबद्धपर्याय की स्वीकृति में उसकी इस मान्यता पर चोट पहुंचती है, इसलिए
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