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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका
कि क्षयोपशम ज्ञान की अपेक्षा जिसे अकालमृत्यु कहा जा रहा है, केवलज्ञान की अपेक्षा वह स्वकाल मृत्यु ही है।
३. अकाल शब्द का काल से पहले' - यह अर्थ नहीं है। अकाल शब्द का अर्थ है 'काल से भिन्न' अर्थात् काल से भिन्न अन्य समवाय । जब काल की मुख्यता से कथन हो तब कालमृत्यु कही जाती है; और विषभक्षण आदि निमित्त की मुख्यता से कथन हो तब अकालमृत्यु कही जाती है। अत: अकालमृत्यु कहने पर भी क्रमबद्धपर्याय के शाश्वत नियम पर कोई अन्तर नहीं पड़ता।
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तिहा
प्रश्न १३ गर्भित आशय :- केवली भगवान को भविष्य में होने वाली पर्यायों का ज्ञान है, अतः उनकी अपेक्षा पर्यायें क्रमबद्ध हैं तथा छद्मस्थ को भविष्य की पर्यायों का ज्ञान नहीं है, अतः उसकी अपेक्षा पर्यायें अक्रमबद्ध हैं। इसप्रकार पर्यायों को कथञ्चित् अक्रमबद्ध मानने में क्या आपत्ति है, ऐसा मानने से अनेकान्त भी सिद्ध हो जाता है। उत्तर :
१. हमारे मानने से वस्तु-स्वरूप दो प्रकार का नहीं हो जायेगा, वह तो जैसा है, वैसा ही है; और हमें भी उसे वैसा ही समझना है, जैसा कि वह है; अपनी मान्यता उस पर नहीं लादना है। वस्तुस्वरूप का निर्णय केवली के ज्ञानानुसार होगा, तभी सच्चा निर्णय होगा। अज्ञान के अनुसार वस्तु का सच्चा निर्णय नहीं हो सकता।
२. हमें भविष्य की पर्यायों का ज्ञान नहीं है, इससे हमारी अज्ञानता सिद्ध होती है, पर्यायों की अनिश्चितता नहीं। यदि किसी को रविवार आदि सातों दिनों के क्रम का ज्ञान नहीं है, तो इससे उनका क्रम भंग नहीं हो जाएगा। अतः
क्रमबद्धपर्याय : कुछ प्रश्नोत्तर पर्यायों को क्रमबद्ध भी मानना और अक्रमबद्ध भी मानना-तो उभयाभास है. अनेकान्त नहीं।
३. केवलज्ञान किसी कार्य का ज्ञापक अर्थात् ज्ञान कराने वाला मात्र है, कारक नहीं । केवलज्ञान ने जाना है, इसलिए वस्तु को उसरूप परिणमित होना पड़ेगा - ऐसा नहीं है । वस्तु के परिणमन को जानने की योग्यता केवलज्ञान में है, अतः वह सहज जानता मात्र है।
४. क्रमबद्धपर्याय में निम्न अपेक्षाओं से अनेकान्त घटित होता है।
अ) पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं, अक्रमबद्ध नहीं, यह विधि-निषेधरूप अनेकान्त है।
ब) गुण अर्थात् सहवर्ती पर्यायें अक्रमरूप (युगपत्) हैं तथा क्रमवर्ती पर्यायें क्रमबद्ध हैं - यह गुण-पर्यायात्मक वस्तु में घटित होनेवाला अनेकान्त है।
स) प्रत्येक गुण प्रति समय परिणमता है, अतः अनन्त पर्यायें एक साथ होती हैं, तथा एक गुण की त्रिकालवर्ती पर्यायें अपने निश्चित क्रमानुसार होती हैं - ऐसा पर्याय सम्बन्धी अनेकान्त है।
गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि चौदह मार्गणायें एक साथ होती है तथा मिथ्यात्व सम्यक्त्व आदि गुणस्थान यथायोग्य क्रम से होते हैं।
५. 'क्रम' और 'अक्रम' शब्द के दो अर्थ होते हैं। (१) क्रम अर्थात् एक के बाद एक और अक्रम अर्थात् युगपत् एक साथ
(२) क्रम अर्थात् निश्चित क्रमानुसार इसके बाद यही, अन्य नहीं, और अक्रम अर्थात् सब कुछ अनिश्चित, अव्यवस्थित । जब पर्यायों में अक्रमपना बताया जाये, तब वह प्रथम अर्थ के अनुसार होता है, द्वितीय अर्थ के अनुसार नहीं, तथा इस अनुशीलन में द्वितीय अर्थ के अनुसार क्रमबद्धपर्याय पर विचार किया गया है। तदनुसार पर्यायें एक निश्चित क्रमानुसार ही होती हैं जो कि स्याद्वादी जैनदर्शन को मान्य है।
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